हिंदी के तीन विद्वान लेखक, संपादकों ने रामगोपाल यादव की किताब का संपादन किया और विमोचन से नदारद रहे.
वैदिक आगे कहते है, “कई बार एक ही नाम की दो किताबें हो जाती हैं, इसमें बुराई क्या है.”
किताब के दूसरे संपादक जेएनयू के पूर्व प्रोफेसर पुष्पेश पंत हैं. किताब के नाम के सवाल पर वो कहते हैं, “अटलजी की किताब के बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं है.”
किताब के संपादन में अपनी भूमिका के सवाल पर पंत कहते हैं, ”मैंने इस किताब के कुछ लेखों का संपादन किया है, जो मुझे दिखाए गए थे. जहां तक बात रही बाकी संपादकों से मिलने की तो इस किताब पर काम कोरोनाकाल के समय में किया गया इसलिए हम कभी मिले नहीं.”
वह आगे कहते हैं, “किताब के लिए एक संपादन मंडल बनाया गया था. जिसमें मैं शामिल था.” यह पूछे जाने पर की कितने लोग इस मंडल में थे वो कोई जवाब नहीं देते.
हमने पुष्पेश पंत को वैदिकजी के जवाब की जानकारी दी कि उन्होंने कोई संपादन नहीं सिर्फ अपना नाम छापने की सहमति दे दी. इस पर पुष्पेश पंत कहते हैं, “मुझे नहीं पता वैदिकजी ने ऐसा क्यों कहा. मुझे कुछ लेख दिए गए थे जिसका संपादन मैंने किया.”
क्या इस किताब के संपादन के लिए रामगोपाल यादव ने आपसे कहा था? इस पर पंत कहते हैं, “सीधे उनका फोन तो नहीं आया लेकिन उनसे जुड़े लोगों ने मुझे इसके लिए कहा था.”
वेदप्रताप वैदिक की तरह पुष्पेश पंत भी किताब के लोकार्पण में मौजूद नहीं थे. वो कहते हैं, “मुझे बुलाया गया था लेकिन कोरोना के कारण सावधानी बरतते हुए मेरे परिवार ने जाने से इंकार कर दिया.”
किताब के तीसरे संपादक प्रो देवीप्रसाद द्विवेदी हैं. द्विवेदी बनारस के संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं. उन्हें पद्म श्री और पद्म भूषण से सम्मानित किया गया है.
वह किताब के नाम को लेकर कहते हैं, “यह किताब नहीं है. अन्य लोगों के विचारों को किताब के रूप में प्रकाशित किया गया है.”
क्या आपको पता था कि यह नाम अटल बिहारी वाजपेयी की किताब का है, इस सवाल पर द्विवेदी कहते हैं, “यह प्रकाशक का काम होता है. इसमें परेशान होने वाली कौन सी बात है. क्या नाम रख दिया गया. नाम एक क्यों है यह आप लोगों का विषय है. आप समझते होंगे. यह मुझसे क्यों पूछ रहे हैं."
जाहिर है उन्हें भी अटल बिहारी वाजपेयी की किताब के बारे में जानकारी नहीं थी. वो कहते हैं, “यह प्रकाशक का काम होता है. यह संपादक का काम नहीं होता है.”
यह अपने आप में चौंकाने वाली जानकारी है कि किताब का नाम संपादक या लेखक नहीं बल्कि प्रकाशक तय करते हैं. बाकी सवालों का जवाब में उन्होंने सिर्फ इतना ही कहा कि किताब पढ़िए, और फोन काट दिया.
किताब के नाम को लेकर सुगबुगाहट चल रही थी. दिलचस्प ये रहा कि दो संपादक किताब के विमोचन कार्यक्रम से नदारद रहे. विमोचन का मंच संभाला कवि कुमार विश्वास ने. रामगोपाल यादव से जुड़े कुछ संस्मरण वरिष्ठ पत्रकार हेमंत शर्मा ने भी लोगों को सुनाया.
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