मुक्तिबोध के कविकर्म के लिए कतई जरूरी नहीं था कि आप उनकी जाति साबित करते, लेकिन वह जाति इतनी बेचैन हो गई कि आनन-फानन में पूरी वंशावली खोल के रख दी.
मैं समाजशास्त्र और मास कम्युनिकेशन का विद्यार्थी हूं. मेरा जो प्रश्न है उसका दायरा मुक्तिबोध का रचनाकर्म नहीं है. वह साहित्य के छात्र का दायरा है. मेरा क्षेत्र भारतीय समाज और उसके कार्य करने की पद्धति और उसका अध्ययन है. मैंने बहुत सीमित उद्देश्य के साथ इस बात को लिखा और मेरी परिकल्पना को लोगों ने सही साबित कर दिया कि एक जाति ने मुक्तिबोध पर अपना दावा कर दिया. अगर वो जातिमुक्त थे तो इसकी कोई जरूरत नहीं थी. वह देशस्थ ब्राह्मण थे यह बताने की जरूरत क्यों पड़ी? किसी को कुशवाहा बोल दिया क्या फर्क पड़ता है, किसी ने लोहार बोल दिया क्या फर्क पड़ता है, कुम्हार बोल दिया, बोलने दीजिए, क्या फर्क पड़ता है. लेकिन फर्क पड़ता है. फर्क नहीं पड़ता तो कुछ लोग दौड़े-दौड़े उनके बेटे के पास यह पूछने क्यों जाते.
मैंने तो नहीं बताया था कि मुक्तिबोध ब्राह्मण हैं. ब्राह्मण हैं यह किसने बताया? जिन लोगों को मुक्तिबोध की जाति नहीं पता थी उनको भी उनकी जाति के बारे में किसने बताया? मैंने तो नहीं बताया. मैंने तो गलत बताया था. सही किसने बताया? यह बताना यदि बुरा काम है तो यह बुरा काम किसने किया? मैंने तो नहीं किया. जिन लोगों ने यह काम किया उनसे पूछा जाना चाहिए कि किसी ने गलत या सही बताया भी तो आपको इतनी बेसब्री या चिंता क्यों थी मुक्तिबोध की जन्म कुंडली खोलने की?
मैं जो कह रहा हूं, यही मेरा उद्देश्य था और तब तक इसे ही मेरा उद्देश्य माना जाय जब तक कि कोई इसे प्रमाणित न कर दे कि मेरा उद्देश्य कुछ और था. एक सामाजिक तथ्य की जांच करनी थी, पुष्टि करनी थी. जब तक मेरे इस वक्तव्य का खंडन करने के लिए कोई और तथ्य न हो तब तक यही मानना होगा कि मैं सही बोल रहा हूं.
कर्म से आकलन को लेकर अर्जुन सिंह या वीपी सिंह का जिक्र किया जा रहा है. जो उनका राजनीतिक जीवन है उसके आधार पर ही उनको तौला जाना चाहिए. जिस तरह से मुक्तिबोध को उनके रचनाकर्म के आधार पर. वीपी सिंह ने जब मंडल कमीशन लागू किया तब बहुत सारे लोगों ने इस तरह के पोस्टर्स लगाए कि वो किसी दलित मां की संतान हैं. इस तरह के पोस्टर्स उन्हें अपमानित करने के लिए लगाए गए थे. तमाम मीडिया हाउस में भी उन्हें गालियां दी गई. गिने-चुने पत्रकारों ने मंडल कमीशन का समर्थन किया था. वीपी सिंह को भी तमाम दलित जातियों के नाम जोड़कर चिन्हिंत किया गया यानी दलित जातियों के नाम भी गाली हैं.
जिन लोगों ने एक्शन लिया इससे क्या फर्क पड़ता है कि उनकी जाति क्या है. वीपी सिंह ने जो किया उनका कर्म है. अगर आज की तारीख में कोई कहे कि वो ओबीसी थे इसलिए उन्होंने ऐसा किया और इस पर बाद में कोई कूद पड़े कि नहीं वह तो ठाकुर थे. तो समस्या उनकी है न जो उनकी जाति पर तत्काल सफाई देने कूद पड़े. उनकी समस्या थोड़ी है जो यह बोल रहे हैं कि नहीं उनका कर्म तो ओबीसी या दलितों की तरह था.
प्रश्न यही है कि मुक्तिबोध की सही जाति बताने की इतनी उत्कंठा क्यों है, इतनी लालसा क्यों है? क्या इसलिए कि मुक्तिबोध विद्वान कवि थे तो उनको ब्राह्मण साबित करना ही पड़ेगा. यह क्यों जरूरी है? क्या इन्हें यह बताना जरूरी लगता है कि कोई कुशवाहा अच्छा रचनाकर्म नहीं कर सकता?
(यह लेख दिलीप मंडल से तस्नीम फातिमा की बातचीत पर आधारित है)