किसान आंदोलन के एक साल बाद सरकार ने किसानों की प्रमुख मांग मानने का वादा किया और अगर इस वादे पर यकीन किया जाए तो संसद के आगामी सत्र में तीनों कृषि कानून खत्म कर दिए जाएंगे.
अगर ऐसा न होता तो इस आंदोलन के सबसे नाजुक क्षणों में आंदोलन के मंच से यह नहीं कहा जाता कि हम पूरी तरह से अहिंसक आंदोलन कर रहे हैं. इस आंदोलन में कोई सुभाष चंद्र बोस की तरह फौज भी नहीं बना रहा था और ना ही कोई डॉक्टर अंबेडकर की तरह मनुस्मृति जला रहा था. वे लाला लाजपत राय की तरह उग्र आंदोलन की बात भी नहीं कर रहे थे. इसलिए यह आंदोलन हमें अपने दिमाग के जाले साफ करने का मौका देता है.
जब हम लोग गांधी के रास्ते पर ही चल सकते हैं तो हमें इस बात को खुलकर स्वीकार करना चाहिए. जब हम जान रहे हैं कि गोली चला कर या बम फेंककर अपने उद्देश्य में सफल नहीं हुआ जा सकता, सिर्फ शहीद हुआ जा सकता है, तो फिर हमें यह बात स्वीकार करनी चाहिए कि आजादी के आंदोलन में महात्मा गांधी का रास्ता बाकी के लोगों के रास्ते से ज्यादा कारगर और उपयोगी था.
हम करें कुछ और अपने बारे में सोचें कुछ और, ऐसा करने से व्यक्तित्व बंट जाता है, चरित्र में दोहरापन आ जाता है. यह दोहरापन हमारी एकाग्रता और लक्ष्य सिद्धि में बाधक बनता है. इसलिए अपने मन में बैठी धारणाओं को एक तरफ कर दें और सच्चे मन से स्वीकार करें कि गांधी जी ने जो रास्ता दिखाया था वही इस देश के लिए सच्चा रास्ता है.
आज इस आंदोलन में गांधी जी के आंदोलनों का एक छोटा सा हिस्सा अपनाने से इतनी सफलता मिली है. अगर लोग वाकई सच्चे मन से बहुत हद तक गांधीवाद का पालन करें तो इससे बड़ी सफलता इससे जल्दी मिल सकती है.
सरदार भगत सिंह की शहादत के बाद पंडित नेहरू ने कहा था कि हम भगत सिंह की बहादुरी को सलाम करते हैं लेकिन हम महात्मा गांधी के दिखाए रास्ते पर चलेंगे. आज के आंदोलनकारी भी जिस दिन इस साफगोई से बोलने लगेंगे उस दिन वह गांधी जी के साथ नेहरू की तस्वीर लगाना भी सीख जाएंगे क्योंकि नेहरू ने आधुनिक सरकारों के खिलाफ आंदोलन ही नहीं किये, भारत में एक ऐसी आधुनिक सरकार भी बनाई जो लोकतांत्रिक तरीके से विरोध सह सके और बाअदब उस विरोध के सामने झुक जाए. हमें अपने लोकतांत्रिक चेतना को विस्तार देने की जरूरत है.
पीयूष बबेले बहुचर्चित पुस्तक “नेहरू: मिथक और सत्य” के लेखक हैं.
(साभार- जनपथ)
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