"शायद हमारी तपस्या में ही कोई कमीं रही होगी जिसके कारण हम दीये के प्रकाश जैसा सत्य कुछ किसान भाईयो को समझा नहीं पाए."
इससे बड़ा अंधविश्वास क्या होगा कि जिस कानून को जनता, कोरपोरेट कंपनियों की गुलामी का जाल समझते हुए काटने के लिए लड़ रही है वह प्रधानमंत्री को दीये के प्रकाश जैसा सत्य लग रहा है. उसमें उन्हें आध्यात्मिक आभा और ईश्वर का रूप दिखाई दे रहा है. ये कानून लोकतंत्र, जिसने उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचाया है उसका सम्मान करते हुए नहीं, कुछ किसान भाईयों की मूर्खता के कारण वापस लिए जा रहे हैं. कोई नया दांव चलने का समय मिले इसके लिए मूर्खों के आगे झुकने की उनकी महानता की कद्र की जानी चाहिए. ऐसी नजर किसी डिजाइनर तपस्वी की ही हो सकती है जो निराली पोशाकों में कैमरों के आगे ध्यान लगाने का लती हो. कैमरे और अपने बीच धोखे से आ पड़ने वाले मुख्यमंत्रियों से भी सरकारी प्राइमरी स्कूल के बच्चों जैसा सलूक करता हो.
मोदी को धर्म और संस्कृति के प्रतीकों के दुरूपयोग में महारत हासिल है. यही संघ-भाजपा की खास राजनीतिक शैली है जो पिछले सात साल के हिंदुत्व राज में लगातार उग्र और घमंडी होती गई है. इसके मूल में हिंदू धर्म का कोई उदात्त और कल्याणकारी भाव नहीं सिर्फ मुसलमानों से चुनावी अवसरानुकूल घृणा है इसलिए हासिल हमेशा विरोधियों के त्रास और भय के रूप में सामने आता है. जनता भी प्रतिक्रिया में इसी मुहावरे में सोचने की अभ्यस्त हो चली है. इन दिनों कोई यह बात नहीं कर रहा है कि इन कानूनों की वापसी से खेती पर क्या असर पड़ेगा बल्कि इसे मोदी के घमंड के टूटने और मजबूरी में झुकने की दुर्लभ परिघटना के रूप में देखा जा रहा है.
धार्मिक प्रतीकों के साथ एक खास बात है कि उनका असर बाध्यकारी होता है. उनके दुरूपयोग और पाखंड को देख पाने वाले लोगों को भी भीड़ के कोप के आगे सिर झुकाना पड़ता है. ऐसे लोगों के आखेट के लिए ही मोदी सरकार के चारो ओर गोदी मीडिया, भक्तों और ट्रोल आर्मी का घेरा बनाया गया है. दूसरी ओर उनके साथ खिलवाड़ की आसान कामयाबी ऐसी जगह पहुंचा देती है जहां से खिलाड़ी की वापसी संभव नहीं होती. दीये के प्रतीक के दुरूपयोग का ऐसा ही एक नमूना कोरोना की पहली लहर के समय दिखाई दिया था. तब मोदी ने कोरोना भगाने के लिए दीये जलाकर ताली बजाने के लिए कहा था. दीये जले, ताली और थाली गगनभेदी बजी लेकिन जब लोग पटापट मरने और शहरों से भागने लगे तो विश्वसनीयता के खात्मे की शुरूआत भी हो गई.
हे डिजाइनर तपस्वी! व्याकरण की नाक पर रूमाल लपेट कर निष्ठा का तुक विष्ठा से मत मिलाओ. एक बार फिर आत्मनिरीक्षण का अवसर आया है. तुम जिसे दीया कहते हो, वह तुम्हें व्यक्तिगत प्रकाश देता होगा लेकिन देश का तो दुर्भाग्य है.
शीर्षक धूमिल की एक कविता से लिया गया है