नवीन कुमार का शुक्रिया कि मुझे उन्होंने शालीन लेखक माना. शालीनता मेरे लिए रणनीति या अच्छा बनने की कोशिश नहीं है. वह मेरे व्यक्तित्व और लेखन की बुनावट में शामिल है जिसकी वजह से यह राय बनती है कि मैं किसी के साथ या खिलाफ नहीं खड़ा हो सकता, सबके बारे में अच्छी-अच्छी बात कहता हूं. इसे मेरी सीमा या दुर्बलता जो चाहें मान लें.
लेकिन इस शालीनता की वजह से लोग मुझे डराने-धमकाने लगें- यह बात दिलचस्प है. मैंने जब मुक्तिबोध की जाति संबंधी बहस में अपनी बात रखी तो उसके पीछे दिलीप मंडल या अभिषेक श्रीवास्तव के पक्ष का ध्यान नहीं था, बस यह ख्याल था कि जिस दौर से हम गुजर रहे हैं, उस दौर में देर-सबेर हमें ऐसे जातिवादी आग्रहों से मुठभेड़ करनी होगी. मैंने बस उदाहरण दिया कि जिस तरह 'कफन' कहानी में प्रेमचंद के जाति-उल्लेख पर सवाल खड़े हुए, उस तरह मुक्तिबोध पर भी हो सकते हैं.
लेकिन मैं देखता हूं, अभिषेक श्रीवास्तव या नवीन कुमार को 'हमला' या 'शिकार' शब्द बहुत प्रिय है. नीयत देखने-खोजने में भी वे माहिर हैं. इसलिए जिस टिप्पणी में बस 'बेचैन' और 'उत्साही' दो विशेषण इस्तेमाल किए गए थे, उसको उन्होंने 'हमला और शिकार करना' बता दिया.
दरअसल चुनी हुई चुप्पियां क्या होती हैं, यह नवीन कुमार की टिप्पणी बताती है. मेरी एक असहमति को विश्वदीपक ने धूर्तता, चुतियापा जैसे शब्दों से जोड़ दिया और अभिषेक श्रीवास्तव बाकायदा धमकाने चले आए- मेरा 'वैचारिक फ्रॉड' और 'लिजलिजापन' देखा, बताया कि मैं 'साहित्य का चौधरी' नहीं हूं और 'वे लौंडे' नहीं हैं, धमकाया कि मैं 'बर्र के छत्ते' में हाथ न डालूं, नसीहत दी कि मैं नौकरी करता रहूं और कहानियां लिखूं. यह भी कि मैं बच कर निकल नहीं पाऊंगा. यह 'बर्र का छत्ता' इसके बाद टूट पड़ा यह दिख रहा है.
लेकिन नवीन कुमार को मॉब लिंचिंग की यह बजरंगी शैली वाली धमकी नहीं दिखी, मुक्तिबोध की जाति पता करने को मेरा मूर्खतापूर्ण बताना दिख गया. जबकि शालीनता को कवच की तरह ओढ़ने वाले अभिषेक श्रीवास्तव अचानक मासूम बन बैठे- कहा कि फोन पर बात कर लेते.
दरअसल नीयत खोजने का यह सिलसिला नवीन कुमार आगे भी जारी रखते हैं. यहां भी वे चुने हुए तथ्यों का सहारा लेते हैं. उनको लगता है कि अनामिका को साहित्य अकादमी सम्मान दिए जाने की घोषणा के समय विश्वदीपक ने जो लेख लिखा था, मैंने उसकी वजह से उनका 'शिकार' करने की कोशिश की. वे मेरी फेसबुक वॉल के हवाले से यह भी बताते हैं कि मैं अनामिका का ‘बहुत बड़ा मुरीद’ रहा हूं और उनकी ‘शान में मैंने बड़ी पोथियां’ लिख डाली हैं. वे पता नहीं, अनामिका के किस जलसे में मेरी उपस्थिति भी खोज लेते हैं. जबकि ऐसे किसी जलसे की मुझे खबर तक नहीं.
बहरहाल तथ्य क्या है? अनामिका की दो कृतियों- टोकरी में दिगंत और आईनासाज पर कुल जमा दो टिप्पणियों के अलावा मैंने उन पर कभी कुछ नहीं लिखा. किसी सार्वजनिक आयोजन में उन पर या उनके कृतित्व पर बोलने की नौबत भी नहीं आई. जबकि उनके ही समकालीन कई लेखकों पर उनसे ज्यादा लिखा. सच तो यह है कि बीते 25 बरस में अपने समकालीन लेखकों की किताबों पर लिख-लिख कर ही मैंने सबको यह कहने का अवसर दिया है कि मैं तो बस दो कौड़ी का समीक्षक हूं. जबकि मेरी कोशिश बस इतनी रही कि बहुत छिद्रान्वेषी दृष्टि से किसी किताब को न पढ़ूं, बल्कि यह बताऊं कि किस कोण से वह किताब सबसे पठनीय बन पड़ती है. अगर उसकी सीमाएं हैं तो उनका भी उल्लेख करूं. किताबों पर लिखने की अपनी इस आदत की वजह से अभिषेक श्रीवास्तव की जिस किताब ‘गांव-देस’ का मुझसे पहले किसी ने अपवाद के लिए भी नोटिस नहीं लिया, उस पर भी लिखा और पूरी तारीफ के साथ लिखा. यह अपेक्षा नहीं की कि अभिषेक इसके लिए मुझे लिखने को कहें या लिखने के बाद धन्यवाद दें.
'टोकरी में दिगंत' पर साहित्य अकादमी घोषित होने के चार बरस पहले मैं लिख चुका था. उन पर अपनी दूसरी टिप्पणी में उनके उपन्यास की सीमाओं का स्पष्ट उल्लेख भी किया. दूसरी तरफ मुक्तिबोध पर मैंने कम से कम पांच लंबे लेख लिखे. उनकी कविताओं पर ही नहीं, उनके गद्य पर भी. और तो और, एक लेख अंग्रेजी में 'द वायर' में भी लिखा. नवीन कुमार चाहते तो इसी फेसबुक पर उन्हें ये सारे लेख मिल जाते. लेकिन वे जो कहना चाहते थे, उसके लिए उन्होंने तथ्य चुन लिया. बता दिया कि मैं मुक्तिबोध पर भी हमला कर रहा हूं. वैसे यह 'हमला' शब्द इस्तेमाल करने का उत्साह न दिखाएं तो मुक्तिबोध या किसी भी लेखक से मुठभेड़ क्यों नहीं की जा सकती?
उन्होंने यह भी खोज लिया कि मैं किसी की आलोचना नहीं करता. दरअसल मुझे लगता है कि जब तक चीख-चीख कर हमला न बोला जाए, जब तक मुट्ठी उछाल जुमलेबाजी की मदद न ली जाए, जब तक हमले, साजिश या योजना का जिक्र न आए, तब तक नवीन कुमार को आलोचना आलोचना नहीं लगती. जबकि मेरे लिखने से किताबों के दूसरे संस्करण रोके गए हैं जिसकी पुष्टि प्रकाशक और लेखक दोनों ने की है. हिंदी की जिस दुनिया में हर कृति को मैत्री के आधार पर ऐतिहासिक और बेमिसाल बताने का चलन है, वहां मैंने अपने मित्रों को इस बात के लिए नाराज किया कि उनकी किताब की सीमाएं बता दी.
सोशल मीडिया पर लेखकों की अभद्रता या उनके लैंगिक पूर्वग्रहों पर अपनी तीखी टिप्पणियों की वजह से मुझे दोस्त भी खोने पड़े हैं और अमर्यादित हमले भी झेलने पड़े हैं. लिखकर मैंने अपने प्रकाशक मित्रों को भी नाराज किया है जिसके कम से कम आधा दर्जन उदाहरण मेरे पास हैं.
विश्वदीपक ने अनामिका के प्रसंग में कुछ लिखा था, इसका मुझे यह टिप्पणी लिखने तक ख्याल नहीं था. किसी के साहित्य अकादमी लेने या न लेने का विरोध किया जा सकता है. मुझे मालूम है कि मौजूदा साहित्य अकादमी की राजनीतिक पक्षधरता का ख्याल रखते हुए कुछ लोगों ने दलील दी थी कि अनामिका को यह पुरस्कार नहीं लेना चाहिए था. लेकिन पुरस्कारों की दुनिया में यह बहस पुरानी है कि लेखक किस आधार पर पुरस्कार ले या खारिज करे. कलबुर्गी की हत्या के बाद साहित्य अकादेमी के रवैए को लेकर भी मैंने तीखे लेख लिखे और पुरस्कार वापस करने वाले लेखकों के साथ खड़ा रहा. लेकिन तब भी मेरा मानना था कि हर किसी को अपना पक्ष चुनने का अधिकार है. मृदुला गर्ग और अलका सरावगी ने अपने तर्क देते हुए पुरस्कार वापसी से मना किया था. मैंने उनके तर्क का सम्मान किया.
बहरहाल, विश्वदीपक के तर्क पर आएं. लेखक को अपने आसपास के अत्याचारों का विरोध करना चाहिए. लेकिन जरूरी नहीं कि वह हर घटना पर बयान जारी करे या फिर फेसबुक पोस्ट लिखे. यह पैमाना बना लिया तो फिर खोजना पड़ेगा कि प्रेमचंद ने भगत सिंह की फांसी के विरोध में क्या लिखा था और निराला ने भारत छोड़ो आंदोलन पर क्या कहा था. देखना यह होता है कि लेखक अंततः अपने लेखन में किन ताकतों के साथ खड़ा होता है या फिर वह जीवन में कैसे समझौते करता है. इस आधार पर विश्वदीपक की टिप्पणी में मुझे ऐसा कुछ नहीं लगा जिसका समर्थन किया जाए. बेशक, यह मेरी राय थी- दूसरों की कुछ और रही होगी. लेकिन इस पैमाने पर अनामिका मुझे उन कई वाम या दक्षिण में बंटे लेखकों की तरह निराश नहीं करतीं जो पुरस्कारों और प्रशस्तियों के लिए घटिया हथकंडे करते पाए जाते रहे हैं. मैं ऐसे लेखकों के साथ खड़ा नहीं होता और उनकी आलोचना कर मैंने उनके समूहों से भी वैसी ही गालियां खाई हैं जैसी यह नवीन समूह दे रहा है.