बचपन में ही विवाह हो जाने के कारण हर साल करीब 22 हजार से ज्यादा बच्चियों की जान जा रही है, जिसका मतलब है कि बाल विवाह हर रोज 60 से ज्यादा बच्चियों की जान ले रहा है.
कोरोना काल में आसान नहीं होगा बच्चियों का जीवन
ऊपर से जिस तरह से कोरोना महामारी ने दुनिया को प्रभावित किया है उसका असर बाल विवाह पर भी पड़ा है. यूएनएफपीए का अनुमान कि इससे लिंग आधारित हिंसा के मामलों में वृद्धि हुई है. यही नहीं अनुमान है कि जिस तरह से इस महामारी के चलते जिस तरह से रोकथाम संबंधी कार्यक्रमों में व्यवधान आया है उसके कारण अगले एक दशक में 20 लाख से ज्यादा खतना के मामले सामने आएंगे.
वहीं सेव द चिल्ड्रन का अनुमान है कि कोविड-19 के चलते दुनिया में जो आर्थिक संकट आया है उसके चलते 2020 में 10 लाख अतिरिक्त बच्चियों को गर्भावस्था का बोझ सहना पड़ा था. वहीं यूएनएफपीए के अनुसार इस महामारी के कारण गर्भनिरोधक उपयों में आए व्यवधान के चलते अनचाहे गर्भ के हर साल 14 लाख मामले सामने आ सकते हैं. वहीं यूनिसेफ का अनुमान है कि इस महामारी के चलते 2030 तक बाल विवाह के एक करोड़ अतिरिक्त मामले सामने आ सकते हैं. इसी तरह दक्षिण एशिया में 2025 तक और 10 लाख बाल विवाह के मामले सामने आ सकते हैं, जिसमें भारत भी शामिल है.
सिर्फ अफ्रीका और दुनिया के अन्य पिछड़े देशों में ही नहीं भारत और दुनिया के कई विकसित देशों में आज भी यह कुप्रथा जारी है. सेव द चिल्ड्रन द्वारा जारी इस रिपोर्ट के मुताबिक अकेले तेलंगाना में अप्रैल 2020 से मार्च 2021 के बीच बाल विवाह की कोशिश के 1355 मामले सामने आए थे जोकि पिछले वर्ष की तुलना में करीब 27 फीसदी ज्यादा है. यह आंकड़ा दिखता है कि चोरी-छिपे ही सही देश में यह कुप्रथा आज भी न केवल मौजूद है बल्कि इसमें वृद्धि भी हो रही है.
ऐसे में यह जरूरी है कि इस समस्या को गंभीरता से लिया जाए. न केवल क़ानूनी तौर पर बल्कि सामाजिक तौर पर भी बाल विवाह जैसी कुप्रथा का विरोध करने की जरूरत है. जरूरी है कि बच्चियों की आवाज बुलंद की जाए, उन्हें भी अपने फैसले लेने का हक है. उन्हें भी अपने जीवन को संवारने, पढ़ने लिखने, खेलने और बेहतर भविष्य बनाने का हक है, जिसे छीना नहीं जा सकता.
(साभार डाउन टू अर्थ)
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