ट्रांसजेंडर सामाजिक बहिष्कार के चलते अपने परिवार से अलग रहते हैं. उनकी पहचान के कारण उन्हें नौकरी मिलने में मुश्किलें आती हैं.
किसी ट्रांसजेंडर को सड़क पर देखकर हम गाड़ी के शीशे चढ़ा लेते हैं. उन्हें भद्दी गालियां देते हैं. उनके अलग दिखने की वजह से हम उनका तिरस्कार करते हैं. ये लोग हमेशा से हमारे समाज का हिस्सा रहे हैं लेकिन दबे, सहमे, छुपे और घबराए हुए. ना पुलिस और ना कोई सरकारी तंत्र है जो ट्रांसजेंडरों के साथ होने वाले अन्याय के खिलाफ इनकी मदद कर सके. वहीं मेट्रो, बस हर जगह जहां महिला हेल्पलाइन नंबर लिखा रहता है वहां ट्रांसजेंडर समुदाय के लिए जगह अब भी खाली है.
23 वर्षीय शोभा की तबीयत कई महीनों से खराब चल रही थी. उनकी कोई सुनने वाला नहीं था. वो घर पर अकेली अपना इलाज कर रही थीं. अगस्त में जब उनकी बीमारी और ज्यादा बढ़ गई तब उन्होंने एनजीओ से संपर्क करना शुरू किया. कम्युनिटी एम्पावरमेंट ट्रस्ट ने शोभा की मदद की. इलाज में पाया गया कि शोभा को एचआईवी है.
वहीं सुशीला केवल 18 साल की थीं. मानसिक उत्पीड़न के कारण इस साल अगस्त में उन्होंने अपने कमरे में फांसी लगा ली.
ट्रांसजेंडर सामाजिक बहिष्कार के चलते अपने परिवार से अलग रहते हैं. उनकी पहचान के कारण उन्हें नौकरी मिलने में मुश्किलें आती हैं. इसके चलते उन्हें रेड लाइट पर भीख मांगकर अपना पेट पालना पड़ता है. ऐसे में राह चलते लोग उन्हें छेड़ते, घूरते और अभद्र गाली देते हैं. यही नहीं, मेट्रो, बस और बाकी सार्वजनिक जगहों पर उनके साथ बदतमीज़ी और छेड़छाड़ होती है.
सरकारी राष्ट्रीय ट्रांसजेंडर हेल्पलाइन नंबर ना होने के कारण ट्रांसजेंडरों की आवाज़ सुनने वाला कोई नहीं है जहां वो शिकायत कर सके.