केरल के पत्रकार सिद्दीकी कप्पन के खिलाफ दाखिल 4,500 से अधिक पन्नों के आरोप-पत्र को खंगालती न्यूज़लॉन्ड्री की सीरीज़.
हाथरस में चश्मदीदों के बयान
आरोपपत्र में हाथरस से चार चश्मदीदों के बयान हैं जिन्होंने कथित तौर पर सिद्दिकी कप्पन और अतीकुर रहमान की पहचान उन लोगों में की है, "जो दिल्ली के सफदरजंग अस्पताल में हाथरस बलात्कार पीड़िता की मृत्यु के बाद उसके गांव आए थे." ये वक्तव्य 7 नवंबर 2020 को एक नोट के रूप में दाखिल किए गए थे.
कप्पन के मामले में बचाव पक्ष के वकील मधुवन दत्त चतुर्वेदी इन आरोपों को सिरे से खारिज करते हैं, क्योंकि उनका कहना है कि कप्पन और बाकी लोगों को हाथरस जाते समय रास्ते में ही गिरफ्तार कर लिया गया था.
सभी चश्मदीद गवाहों ने हिंसा फैलाने की कोशिश करते शरारती तत्वों को "बाहरी लोग" कहकर संबोधित किया और बताया कि "उनके निशाने पर ठाकुर समुदाय के लोग थे."
न्यूज़लॉन्ड्री से बातचीत में सिद्दिकी कप्पन के वकील विल्स मैथ्यूज़ ने कहा, "डिस्क्लोजर बयान सबूत के रूप में मान्य नहीं होते. और इस मामले में तो बयान अप्रत्याशित और विरोधाभासों से भरे हुए हैं."
क्या इन बयानों को आरोप पत्र में जोड़ देना जांच एजेंसी के द्वारा खेला गया एक पैंतरा है, मैथ्यूज़ जवाब में कहते हैं, "लगभग सभी अपराधिक मुकदमों में आरोपों को सही ठहराते हुई कहानियां गढ़ी जाती हैं लेकिन असली परीक्षा मुकदमा ही होता है. आमतौर पर यह कहानियां मुकदमे के दौरान गलत साबित होती हैं."
मैथ्यूज़ इस बात पर जोर देते हैं कि उन्हें आरोप पत्र अभी तक नहीं मिला है और कहते हैं, "उसने (कप्पन) ने अपने को निर्दोष साबित करने के लिए खुद ही नारको परीक्षण या कोई और वैज्ञानिक टेस्ट के लिए पेशकश की है."
बयानों का दुरुपयोग
आरोपपत्र में शामिल अपराध स्वीकारने वाले बयान हाल ही में 2020 दिल्ली दंगों के मुकदमों के दौरान सवालों के घेरे में आए. स्क्रोल की एक रिपोर्ट के अनुसार, दिल्ली पुलिस के हेड कांस्टेबल रतन लाल की मौत के मामले में गिरफ्तार किए गए 17 मुसलमान युवकों में से सात के बयान एक जैसे थे, जिससे इन वक्तव्यों की सत्यता पर सवाल उठते हैं.
न्यूज़लॉन्ड्री ने पहले रिपोर्ट की है कि कैसे ज़ी, प्रिंट और एएनआई ने कई बार, आम आदमी पार्टी के पूर्व सभासद ताहिर हुसैन, जामिया के विद्यार्थी नीरन हैदर और आसिफ इकबाल तन्हा व दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्रा गुलफिशा फातिमा के कानूनन अमान्य वक्तव्यों को "कबूलनामा" बताकर प्रस्तुत किया.
यूपी एसटीएफ के द्वारा मथुरा में दर्ज एफआईआर संख्या 199/2020 से जुड़े दाखिल आरोप पत्र में भी ऐसे ही बयानों का पुलिस के अनुमानों को सत्यापित करने के लिए दुरुपयोग हुआ जान पड़ता है.
पुलिस की हिरासत में दिए गए बयानों की विश्वसनीयता पर उच्चतम न्यायालय के वकील अबू बकर सब्बाक ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया, "भारतीय साक्ष्य अधिनियम के अनुच्छेद 25 के अंतर्गत डिस्क्लोजर बयान आरोपी के खिलाफ इस्तेमाल नहीं किए जा सकते. तब भी पुलिस इन्हें नोट करती है और आरोप गढ़ने के लिए उन्हें ही आधार बनाती है."
मोहम्मद नसरुद्दीन जिन्हें 1994 में टाडा के तहत गिरफ्तार किया गया था का उदाहरण देते हुए सब्बाक कहते हैं, "22 साल बाद 11 मई 2016 को उच्चतम न्यायालय ने इस मामले में निर्णय दिया. यह देखा गया कि इस मामले में इकलौता साक्ष्य जांच अधिकारी के सामने दिया गया डिस्क्लोजर बयान था, जिसको साबित नहीं किया जा सका और आरोपी बरी हो गया."
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