लोकतंत्र का स्वास्थ्य अच्छा नहीं है, लखीमपुर खीरी की घटना को न करें अनदेखा!

आने वाला समय किसान आंदोलन के नेतृत्व के लिए कठिन परीक्षा का है. किसान नेताओं को जनता को यह स्पष्ट संदेश देना होगा कि वे हर प्रकार की हिंसा के विरुद्ध हैं.

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इन बयानों के परिप्रेक्ष्य में ही आशीष मिश्र या उस जैसे किसी युवक के हिंसक पागलपन को देखा जाना चाहिए. इस नौजवान के मन में इतना जहर भरा जा चुका है कि गुस्से, भय, नफरत और हिंसा के अतिरिक्त उसे और कुछ नहीं सूझता. उसके अपने क्षेत्र के परिचित लोग उसे शत्रु की भांति लगते हैं. वह सत्ता के संरक्षण को लेकर आश्वस्त है. शायद उसके मन में यह आशा भी हो कि वह नायक बन जाएगा और उसे पुरस्कृत किया जाएगा. इस घातक मनोदशा में वह जघन्यतम अपराध करने की ओर अग्रसर होता है. यह भी संभव है कि उसके मन में कोई पश्चाताप न हो. हो तो यह भी सकता है कि सोशल मीडिया में सक्रिय हिंसा और घृणा के पुजारी इस लड़के की कायरता को वीरता का दर्जा दें और अन्य नवयुवकों को इसके अनुकरण की सलाह दें. इस घटना के बाद पता नहीं एक पिता के तौर पर श्री अजय कुमार मिश्र अपने पुत्र के लिए कैसी राय रखेंगे? किंतु मुझे लगता है कि उन्हें चिंतित होना चाहिए. उनका लड़का जेहनी तौर पर बीमार है. उन्हें स्वयं पर लज्जित होना चाहिए. वे कैसा हिंसा-प्रिय घृणा-संचालित समाज बनाने में योगदान दे रहे हैं? आशीष के बर्ताव पर देश के हर माता-पिता को शर्मिंदा होना चाहिए; उन्हें भयभीत एवं फिक्रमंद होना चाहिए. यह उनके लिए सतर्क होने का समय है. यदि नफरत और बंटवारे की इस आंधी को न रोका गया तो कोई भी नहीं बचेगा. ऐसा बिलकुल नहीं है कि हिंसा की आग हिंसा प्रारंभ करने वाले को बख्श देगी. इस आग में सब झुलसेंगे- हम सब.

इस जघन्य वारदात की पटकथा तब से ही रची जाने लगी होगी जब किसानों को पाकिस्तानपरस्त, खालिस्तानी, विलासी, आम टैक्सपेयर के पैसे से ऐश करने वाला सब्सिडीजीवी, अराजक, हिंसक एवं राजनीतिक दलों का पिट्ठू ठहराने वाली झूठ से भरी पहली जहरीली पोस्ट सोशल मीडिया में फैलायी गयी होगी. यह पटकथा तब और पुख्ता हो गयी होगी जब किसी वायरल पोस्ट के माध्यम से सरकार की गलत नीतियों के कारण बेरोजगारी और गरीबी की मार झेल रहे नौजवानों को यह विश्वास दिलाया गया होगा कि उनकी दुर्दशा के लिए अल्पसंख्यकों के बाद कोई जिम्मेदार है तो वह किसान ही हैं. इन किसानों को मार भगाना उनका राष्ट्रीय कर्त्तव्य है. इससे भी बहुत पहले जब पहली बार युवाओं की किसी हिंसक भीड़ ने किसी निर्दोष को अपना अपराधी चुनकर उसका अपराध तय किया होगा और फिर उसे मृत्यु दंड दिया होगा तब ऐसे निर्मम एवं अमानवीय कृत्य की पूर्वपीठिका तैयार हो गयी होगी. उस समय हम सब चुप थे, हमने इन नफरत फैलाने वाली पोस्ट्स का आनंद लिया, प्रतिवाद नहीं किया. हम यह सोचकर खुश होते रहे कि हम हिंसा करने वालों में से एक हैं, इसका शिकार बनने वाले तो कोई और हैं. हम अपने बच्चों को हिंसक शैतानों का जॉम्बी बनते देखते रहे. अब भी हम आत्मघाती चुप्पी के शिकार हैं. गांधी के देश में अहिंसा को कमजोरी बताकर खारिज किया जा रहा है और हम तमाशबीन बने हुए हैं.

सत्ताएं असहमत स्वरों को कुचलने के लिए अनेक रणनीतियां अपनाती हैं. इनमें से सर्वाधिक घातक है राज्य-पोषित हिंसा. कानूनी प्रावधानों के दुरुपयोग और पुलिसिया दमन के लिए राज्य को प्रत्यक्ष रूप से कठघरे में खड़ा किया जा सकता है, अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं और विश्व जनमत उस पर लोकतंत्र एवं मानवाधिकारों की रक्षा के लिए दबाव बना सकते हैं किंतु राज्य-पोषित हिंसा से स्वयं को अलग कर लेना राज्य के लिए बहुत आसान होता है. अब भी सरकार की यही रणनीति है. सरकार यह जाहिर करने का प्रयास करेगी कि वह तो असीम धैर्य से अराजक किसानों की हठधर्मिता को झेल रही थी किंतु जनता का धैर्य जवाब दे गया और उसने किसानों को सबक सिखाने का फैसला किया. इसके बाद किसानों पर हिंसक आक्रमण होंगे. कहीं न कहीं, कभी न कभी किसानों का संयम टूटेगा और हिंसा-प्रतिहिंसा का चक्र चल निकलेगा. फिर सरकार कानून व्यवस्था बनाए रखने के नाम पर उतरेगी और किसानों की गिरफ्तारी एवं दमन की प्रक्रिया चल पड़ेगी. असहमति रखने वाले वर्ग को सरकार समर्थक मीडिया एवं सोशल मीडिया के माध्यम से राष्ट्रद्रोही सिद्ध करना और फिर सरकार के हिंसक समर्थकों को राष्ट्रभक्ति के नाम पर उन पर हिंसक आक्रमण की छूट देना- यह रणनीति सरकार को बड़ी आकर्षक एवं कारगर लग सकती है लेकिन समाज को अलग अलग परस्पर शत्रु समूहों में बांटकर हिंसा को बढ़ावा देने के घातक दुष्परिणाम निकल सकते हैं और सामाजिक विघटन तथा गृहयुद्ध के हालात बन सकते हैं.

प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने इसी माह दिए गए एक साक्षात्कार में यह स्पष्ट कर दिया है कि कृषि कानूनों को वापस लेने का उनका कोई इरादा नहीं है. उन्होंने हमेशा ही किसान आंदोलन को विपक्षी दलों के षड्यंत्र के रूप में चित्रित किया है. इस बार भी कृषि कानूनों पर विपक्ष के रवैये को ‘बौद्धिक बेईमानी’ और ‘राजनीतिक छल’ करार देते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि नागरिकों को लाभ पहुंचाने के लिए कड़े और बड़े फैसले लेने की आवश्यकता है. ये फैसले दशकों पहले ही लिए जाने चाहिए थे. प्रधानमंत्री ने कहा कि उनकी सरकार प्रारंभ से ही कह रही है कि वह विरोध करने वाले कृषि निकायों के साथ बैठकर उन मुद्दों पर चर्चा करने के लिए तैयार है, जिन पर असहमति है. उन्होंने कहा कि इस संबंध में कई बैठकें भी हुई हैं, लेकिन अब तक किसी ने भी किसी विशेष बिंदु पर असहमति नहीं जतायी है कि हमें इसे परिवर्तित करना चाहिए.

प्रधानमंत्री जी भी अनेक बार उसी विभाजनकारी नैरेटिव का प्रयोग किसान आंदोलन को महत्वहीन एवं अनुचित बताने के लिए कर चुके हैं जिसे उनके समर्थकों ने सोशल मीडिया पर गढ़ा है. अपने भाषणों में इन कृषि कानूनों को छोटे किसानों हेतु लाभकारी बताकर वे यह संकेत देते हैं कि आंदोलन में केवल मुट्ठी भर बड़े किसान शामिल हैं. कभी वे ‘आन्दोलनजीवी’ जैसी अभिव्यक्ति का उपयोग कर यह दर्शाते हैं कि समाजवादी और वामपंथी विचारधारा से जुड़े सामाजिक कार्यकर्ता इस आंदोलन के लिए जिम्मेदार हैं. कभी वे कांग्रेस पर हमलावर होते हैं कि उसे कृषि कानूनों के विरोध का कोई अधिकार नहीं है. अभी भी वर्तमान साक्षात्कार में जब वे कहते हैं कि नागरिकों को लाभ पहुंचाने के लिए बड़े और कड़े फैसले लेने पड़ते हैं तो इसमें यह अर्थ निहित होता है कि आंदोलनरत किसान देश के नागरिकों को मिलने वाले लाभों के मार्ग में रोड़े अटका रहे हैं. ऐसा प्रतीत होता है कि प्रधानमंत्री जी इन बैठकों की कार्रवाई से भी अनभिज्ञ हैं अन्यथा उन्हें किसान नेताओं द्वारा कंडिकावार दी गयी आपत्तियों का ज्ञान होता. कोरोनाकाल की अफरातफरी में किसानों से बिना पूछे कॉरपोरेट घरानों को लाभ पहुंचाने वाले, किसानों पर जबरन थोपे गए यह बिल किसानों को अस्वीकार्य हैं, कम से कम प्रधानमंत्री जी को इतना तो ज्ञात होगा. यदि आम जनता से बिना संवाद किए उस पर अपना निर्णय थोपना, जनमत की अनदेखी करना, जन असंतोष को षड्यंत्र समझना तथा हिंसा एवं विभाजन को समर्थन देने वाले अपने अधीनस्थों को संरक्षण देना मजबूत नेता के लक्षण हैं तो आदरणीय प्रधानमंत्री जी निश्चित ही इस कसौटी पर खरे उतरते हैं.

आदरणीय प्रधानमंत्री जी की इस स्पष्टोक्ति के बाद कि कृषि कानून वापस नहीं होंगे उनके अंध-समर्थकों को यह अपना नैतिक उत्तरदायित्व लग रहा है कि वे किसानों को जबरन खदेड़कर आंदोलन समाप्त कर दें. आदरणीय प्रधानमंत्री जी को यह स्पष्ट घोषणा करनी चाहिए कि आंदोलित किसानों से भले ही उनकी असहमति है किंतु वे इन किसानों के विरोध दर्ज करने के अधिकार का सम्मान करते हैं और वे इन पर होने वाली किसी भी प्रकार की दमनात्मक एवं हिंसक कार्रवाई के साथ नहीं हैं.

आने वाला समय किसान आंदोलन के नेतृत्व के लिए कठिन परीक्षा का है. उकसाने वाली हर कार्रवाई के बाद भी उसे आंदोलन को अहिंसक बनाए रखना होगा. किसान नेताओं को जनता को यह स्पष्ट संदेश देना होगा कि वे हर प्रकार की हिंसा के विरुद्ध हैं.

लेखक छत्तीसगढ़ के रायगढ़ स्थित स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं.

(साभार- जनपथ)

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