140 करोड़ की सामूहिक नियति के आर-पार एक ‘थार’

लखीमपुर में किसानों को जिस गाड़ी से बेरहमी से कुचला गया उस गाड़ी में आज के मौजूदा दौर में उपलब्ध सत्ता के सारे स्रोत एक साथ बैठे थे.

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उस रोज़ थार गाड़ी में वे सभी दृश्य-अदृश्य ग्रह एक साथ बैठे हुए थे जो जनता पर राज करने के लिए गढ़े गए और उन्हें हर रोज़ नये-नये नामों से गढ़ा जाता जा रहा है. गृह राज्यमंत्री इस जन्मकुंडली में चले आ रहे ग्रहों से अलग एक नया गृह है. इसे आए तो अभी जुम्मा जुम्मा 75 साल ही हुए हैं, लेकिन जो वास्तव में गाड़ी चला रहा था, भौतिक रूप में वह एक ब्राह्मण है. और इस देश में ब्राह्मण कोई अकेला व्यक्ति नहीं रहा. कभी वह तमाम सामाजिक संस्थाओं का नियामक और उनका निर्माता रहा है. यह ब्राह्मण इस जन्मकुंडली से पहले ही लोगों की चेतना में शामिल है और दिलचस्प है कि यह आज भी उसी रूप में शामिल है जैसा तब रहा होगा जब जन्मकुंडली या गृह राज्यमंत्री के ओहदे का आविष्कार न हुआ होगा.

क्या लगता है कि थार में केवल देश के गृह राज्यमंत्री का बेटा बैठा था जो उसे चला रहा था? या यह महज एक आकस्मिक घटना थी? या यह एक एक्सीडेंट था? या इस घटना को अंजाम देते वक़्त और उसके बाद के कार्य-कारणों का आकलन नहीं किया गया था? सब कुछ किया गया था. ध्यान से देखें तो थार उस जन्मकुंडली के रूप में बदलती हुई दिखलायी देगी जो हमारी नियति को गढ़ने के लिए बनायी गयी है.

इस बार सत्ता को अपनी सत्ता से ही सत्ता हासिल हो रही थी. गांव जवार में अक्सर ऐसी ऐंठ या हेकड़ी देखकर लोगों में क्या पूछने का चलन शायद औपनिवेशिक दौर से शुरू हुआ होगा कि कहीं के लाट साहब हो का? बाप गवर्नर है का? यह बात 3 अक्टूबर को लखीमपुर खीरी में किसी को पूछने की ज़रूरत महसूस नहीं हुई. सबको पता था कि थार गाड़ी से किसानों को कुचल देने वाला व्यक्ति सत्ता का लाट साब है और उसका बाप गवर्नर से कहीं ज़्यादा पावरफुल है. उसका बाप इस देश का गृह राज्यमंत्री है.

लोकजीवन में प्रतीक अगर धीरे-धीरे बनते हैं तो उससे भी धीमी गति से मिटते हैं. आज भी सत्ता की हनक के लिए कलेट्टर, गवर्नर और लाट साब कहा जाना सबसे बड़े प्रतीक बने हुए हैं. इसका अर्थ ये भी है कि जनता सत्ता की हेकड़ी और उसकी पैदाइश के बीच के संबंध को समझना जानती है. इससे पहले के किसी दौर में राजाओं, जमींदारों, मालगुज़ारों और उनके कारिंदों के ज़ुल्मों को भी समझती थी, अंग्रेजों की सत्ता से निकले प्रतीकों को भी समझती थी और अब जब जनता की अपनी ही सरकार है पिछले 75 सालों से तब वह अपनी सरकार के लाट साहबों को भी समझने लगी है.

यह समझना इतना आम हो गया है कि लोकतंत्रने बेशर्मी के सारे पर्दे उघाड़ दिए हैं. उसे अब यह भ्रम नहीं बचा है कि लोकतंत्र की आड़ लेकर कम से कम ऐसी लाट साहबी नहीं की जा सकती है. वह कर रही है और पूरी बेहयाई से कर रही है. कोई है जो रोक सके? जवाब बहुत आदर्श है- कि जनता चाहे तो रोक सकती है. इसका जवाब ये भी है कि जनता चाहे तो अपने ऊपर लाट साहबी थोपने का जनादेश भी कर सकती है. बहुत दिनों से ज़िंदगी में कुछ किक नहीं मिल रही है तो चलो अब इस कतिपय शांत, सद्भावपूर्ण फिज़ाओं में थोड़ा जहर घोलें, ऐसी सत्ता को मजबूत करें जिससे हमें भी सत्ता का कुछ मज़ा मिले. सत्ता जब मज़े देती है तो ऐसे ही देती है. नमक अपने खारेपन के लिए ही नमक है, जैसे शक्कर अपने मीठेपन के लिए शक्कर है या जैसे कोई खट्टी चीज़ अपने खट्टेपन की वजह से ही खट्टी है. सत्ता अपने अहंकार, गुरूर, हनक, हेकड़ी और बर्बर होने की वजह से ही सत्ता है.

सत्ता ने नारंगी स्कार्फ गले में डाला हुआ था, धूप का चश्मा आंखों पर था और झक सफेद शर्ट में वह इतिहास में शायद सबसे ज़्यादा क्रूर भंगिमाओं से युक्त किसानों से मुठभेड़ कर रही थी. मुठभेड़ भी क्या, एकतरफा कार्रवाई पर आमादा थी. कार्रवाई की गयी. कुल जमा नौ ज़िंदगियों को सदियों से अर्जित और हड़पी हुई सत्ता ने थार गाड़ी में बैठकर लाशों में बदल दिया. केवल एक घटना से महज़ नौ ज़िंदगियां लेकर गृह मंत्रालय ने देश के 140 करोड़ नागरिकों को जिंदा लाशों में बदल दिया।

है किसी की हिम्मत जो खुद को इन नौ लाशों से पृथक करते हुए घोषणा कर सके कि हम ज़िंदा हैं? जो कह रहे हैं वे नागरिक नहीं हैं, देशद्रोही हैं. तय करने का यही शायद वक़्त है कि हम देशद्रोही होकर जिंदा होने को दिखाना चाहते हैं या चुप रहकर चुपचाप उन नौ लाशों के साथ उनके बगल में लेट जाना चाहते हैं…!

(साभार- जनपथ)

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