उत्तर प्रदेश में 3 और 4 अक्टूबर के दरमियान बीते 24 घंटों में गोरक्षपीठाधीश्वर महन्त योगी आदित्यनाथ के हाथों एक शास्त्रीय कार्य संपन्न हुआ है. 'महन्त' शब्द 'महान्त' का रूपांतरण है. जिस स्थिति के समक्ष महानता भी छोटी प्रतीत होने लगे, जहां मोह का अन्त हो जाय, उसे 'महन्त' कहते हैं. 'महन्त' में 'मोहान्त' की प्रतिध्वनि सुनायी पड़ती है ('नाथपंथ का सामाजिक दर्शन', महायोगी गुरु श्रीगोरक्षनाथ शोधपीठ, दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय द्वारा प्रकाशित). नवभारत टाइम्स ने इस 'महन्तई' को क्या खूब समझा है- लखीमपुर कांड: प्रियंका, अखिलेश, संजय.... देखता रह गया विपक्ष और योगी ने बंद कर दिए सियासत के सारे रास्ते.
क्या तो महान दृश्य है! ऐसा लोकतंत्र में शायद ही कभी हुआ हो, जो लखीमपुर कांड के बाद यूपी में देखा गया है. एक अन्याय हुआ. पीड़ित पक्ष (किसान) की ओर से आवाज़ उठी. अन्यायी (मंत्रीपक्ष) और पीड़ित (किसान) को समान न्याय दिया गया. इस न्याय-प्रक्रिया में मध्यस्थता पीड़ित की ओर से आवाज़ उठाने वाले 'आधिकारिक' पक्ष (किसान नेता) ने की. इस बीच बाकी मुखर लोगों (राजनीतिक विपक्ष) को नजरबंद और हिरासत में रखा गया. पंच परमेश्वर (सुप्रीम कोर्ट) ने बिलकुल इसी मौके पर टिप्पणी की कि वह इस बात का परीक्षण करेंगे कि पीड़ित को विरोध प्रदर्शन करने का हक है या नहीं, चूंकि मामला अदालत में लंबित है. वीडियो देखिए- इससे ज्यादा आश्वस्तकारी क्या होगा कि राकेश टिकैत और पुलिस के मुखिया अगल-बगल बैठ कर सुलहनामे की तकरीर कर रहे हैं.
'चट मंगनी पट ब्याह' की तर्ज पर निष्पादित इस न्याय-प्रक्रिया को भारतीय न्यायदर्शन में अर्ध-कुक्कुटी न्याय कहते हैं. कुक्कुट मने मुर्गी और अर्ध मने आधा. इस किस्म के न्याय में आधी मुर्गी काट के खा ली जाती है और आधी को अंडा देने के लिए छोड़ दिया जाता है. आसान शब्दों में कहें तो एक ही घटना या कथन के एक हिस्से पर विश्वास किया जाता है और दूसरे पर संदेह. लखीमपुर में अन्याय हुआ है तो सबको बराबर मुआवजा मिलेगा- यह वो मुर्गी है जो खा ली गयी है. जो अंडा देने के लिए बची है, वो यह है कि अन्यायी को सजा मिलेगी. 'अन्यायी' कौन?
अर्ध-कुक्कुट से अंडा निकलने में वक्त लगता है क्योंकि अन्यायी का तत्काल पता नहीं होता. उसके लिए कमेटी बनती है, जांच होती है, मुकदमे दर्ज होते हैं, धर-पकड़ की जाती है. ऊपर से यहां की मुर्गियां क्रांतिकारी भी हैं. अभिनेता पंकज त्रिपाठी बस्तर में दो घंटे इंटेरोगेट कर के क्रांतिकारी मुर्गियों से अंडे निकलवाते थे (न्यूटन, 2017). उत्तर प्रदेश में एकाध साल भी लग सकता है. मसलन, सिद्दीक कप्पन को ही देख लीजिए जिनके ऊपर 5000 पन्ने की चार्जशीट का कुल निचोड़ इतना है कि वे पत्रकार हैं. इसके बावजूद वे आज तक जेल में हैं क्योंकि उनका पत्रकार होना और लिखना गुनाह बन चुका है जबकि शुरू में उन्हें देशद्रोही और जाने क्या-क्या बताया गया था. यही चार्जशीट अंडा है, जो साल भर बाद हाथरस की आधी मुर्गी से निकला है. 'न्याय' तो काफी पहले हो चुका था इसलिए हिंदी के अखबारों को कप्पन में कोई दिलचस्पी नहीं है.
हमने हाथरस से लेकर सीएए आंदोलन में महन्तजी का न्याय देखा है, लेकिन इस बार वे अपने विशुद्ध योगी स्वरूप में दिखे. नेता तो नेता, उन्होंने अपने मठ में जनता के आने पर भी पाबंदी लगा दी ताकि न्याय पर कोई राजनीति न हो सके. जब तक दोनों पक्षों में 'समझौता' नहीं हुआ तब तक हर चीज को नियंत्रित कर के रखा गया. आदमी से लेकर इंटरनेट की तरंगों को भी. पंजाब के पत्रकारों को मेरठ में रोक दिया गया और पंजाब की जनता को पंजाब में.
अब सोचिए, जो सरकार आंदोलनकारियों की जमीन-जायदाद कुर्की कर के कमाई करती हो, उसने 45-45 लाख के मुआवजे के 'समझौते' पर कुछ घंटों के भीतर हामी कैसे भर दी होगी? यह सोचने का काम कायदे से तो अखबारों का था, लेकिन हमारे हिंदी के संपादकों को यह 'न्याय' इतना द्रवित कर गया है कि वे जो लिख रहे हैं उसे भावावेश में खुद ही समझ नहीं पा रहे. ऊपर पहले पैरा में नवभारत टाइम्स की जिस खबर का शीर्षक दर्ज है, उसे ध्यान से देखिए: एक अखबार विपक्ष के लिए राजनीति के सारे रास्ते बंद किये जाने का जश्न मना रहा है. यह 'विपक्षमुक्त भारत' के भाजपा के नारे की एक अश्लील पुष्टि है.
दैनिक जागरण और अन्य जागरण
बहरहाल, लखीमपुर खीरी में धत्कर्म तो सभी ने किये हैं लेकिन सोमवार की सुबह अकेले दैनिक जागरण के लिए खासी बुरी रही. उसने लखीमपुर में हुई आठ मौतों का ठीकरा किसानों के सिर पर फोड़ दिया. इसके बाद ट्विटर और फेसबुक सहित दूसरे माध्यमों पर उसे दलाल ट्रेंड कराया जाने लगा. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र बनारस में किसानों ने अखबार की फोटो प्रतियां जलायीं. जाहिर है, अखबार पर पैसे खर्च कर के उसे खरीद कर मूल प्रतियां जलाने से यह कहीं बेहतर रणनीति रही होगी, चाहे कितनी ही प्रतीकात्मक हो.
दैनिक जागरण के मालिक और संपादक संजय गुप्ता की मठ में आस्था पहाड़ की तरह अडिग है. कठुआ से लेकर हाथरस और अब लखीमपुर में इतनी बार इतनी भद्द पिटने के बावजूद वे नहीं मानते. सोमवार को दिन भर दैनिक जागरण को गालियां पड़ती रहीं लेकिन शाम को जो खबर डिजिटल संस्करण में आयी, उसका पहला पैरा विशेष रूप से पढ़ने लायक है. बोल्ड किये हिस्सों पर ध्यान दें:
लखीमपुर खीरी में रविवार को किसानों के उपद्रव के बाद भड़की हिंसा में चार किसानों सहित आठ लोगों की मौत के बाद अब मामला शांत हो रहा है. करीब 24 घंटे की जद्दोजहद के बाद लखीमपुर हिंसा में सोमवार दोपहर प्रशासन किसानों को मनाने में सफल हो गया. भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता राकेश टिकैत की मध्यस्थता से किसानों और सरकार के बीच समझौता हो गया.
अगर यह 'किसानों के उपद्रव के बाद भड़की हिंसा' है, तो 'प्रशासन किसानों को मना' क्यों और किस बात के लिए रहा था? 'किसानों और सरकार के बीच समझौता' क्यों हुआ? खबर लिखने में यह विरोधाभास इसलिए सामने आया क्योंकि अखबार ने घटनाक्रम के नतीजे पर पहुंचने से पहले ही निष्कर्ष निकाल लिया था कि किसानों ने हिंसा भड़कायी है. यही काम इसने कठुआ और हाथरस में किया था. हमारे अखबारों को अपने लिखे झूठ पर पछताने या माफी मांगने की आदत नहीं है. मठ में उनकी आस्था अडिग है, भले महन्तजी की सरकार अपनी मजबूरियों के चलते झुक जाए! जागरण के पुराने धत्कर्मों को बहुत से लोगों ने खोद के सोमवार को निकाला है. फिर से देखिए:
हिंदी अखबारों की दुनिया में दैनिक जागरण अपने किस्म का इकलौता होगा, लेकिन अनियतकालीन जागरणों की कमी नहीं है. होता यह है कि दैनिक जागरण के चक्कर में बाकी की हरकतें आंखों से बस ओझल रह जाती हैं. सोमवार 4 सितम्बर को हिंदी के बाकी अखबारों ने लखीमपुर पर जनता का 'जागरण' कैसे किया, उसकी सूची नीचे देखें:
दैनिक ट्रिब्यून: यूपी में किसान प्रदर्शन के दौरान हिंसा, 8 की मौत
राष्ट्रीय सहारा: किसान आंदोलन के दौरान हिंसा
जनसत्ता: किसान प्रदर्शन में हिंसा, छह मरे
हिंदुस्तान, हरिभूमि, पंजाब केसरी और नवभारत टाइम्स ने लखीमपुर कांड पर जो शीर्षक लगाया, वह 'बचते-बचाते' था जिसमें किसी एक पक्ष को हिंसा का जिम्मेवार नहीं ठहराया गया था. अकेले अमर उजाला और दैनिक भास्कर की खबरों में कार का जिक्र था. अमर उजाला ने शीर्षक में 'केंद्रीय मंत्री के बेटे' लिखा तो दैनिक भास्कर ने 'मंत्री का काफिला' लिखा.
दैनिक भास्कर के पहले पन्ने पर शायद राजनीतिक रूप से समझदार कोई प्रभारी होगा क्योंकि उसने लखीमपुर कांड की खबर के साथ हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर के उकसाने वाले बयान को समानांतर छापा, जो खबर को एक परिप्रेक्ष्य देता है. ऐसी पत्रकारीय कलाकारी आजकल कम दिखती है.
पाठकों को झूठ से दैनिक जगाने वाले अखबार की निंदा तो ठीक है, लेकिन कभी-कभी ऐसा करने वाले ट्रिब्यून, जनसत्ता और राष्ट्रीय सहारा का क्या किया जाय? इसी संदर्भ में एक पत्रकार साथी ने याद दिलाया कि आज से कोई 15 साल पहले सहारा समूह का जो साप्ताहिक 'सहारा समय' बड़े धूमधाम से निकला था, उसमें वरिष्ठ पत्रकार प्रभात रंजन दीन ने लखीमपुर कांड के आरोपी केंद्रीय मंत्री अजय मिश्र टेनी के सीमापार कारोबार पर एक विस्तृत स्टोरी लिखी थी, हालांकि उस वक्त उस स्टोरी का कोई राजनीतिक संदर्भ नहीं बन सका था. आज खोद-खोद कर प्रभात गुप्ता हत्याकांड का इतिहास टेनी के संदर्भ में अखबारों में किया जा रहा है लेकिन मिश्र कुनबे की समृद्धि के पीछे उनके कारोबार तक अब भी कोई नहीं पहुंच सका है. पत्रकारिता में फॉलो-अप की विधा खत्म हो जाने का बहुत नुकसान हुआ है. पत्रकारों की स्मृति भी अब जवाब दे रही है. नतीजा वही है, जो हम देख रहे हैं.