"कन्हैया का कांग्रेस में जाना बिहार में कांग्रेस को नवजीवन तो देगा ही साथ ही भाजपा के एकाधिकारवादी राजनीति और इसके वर्चस्व पर भी अंकुश लगा सकता है."
दूसरा: कांग्रेस का पुराना वोट बैंक फॉर्मूला- कांग्रेस आज भी “ऊंची-जातियों” के लिए एक राजनीतिक विकल्प के रूप में देखी जाती है. कतिपय कारणों से “ऊंची-जातियां’ भाजपा की तरफ तो मुड़ी हैं, लेकिन कांग्रेस अपनी नीतियों से पुनः इन्हें अपनी तरफ खींच सकती है. तीसरा: “ऊंची-जातियों” का समर्थन- बिहार में जाति और चुनाव के बीच गहरा संबंध है, हालांकि भाजपा ने इस परंपरा को काफी हद तक तोड़ा है, फिर भी जातीय नेता अपने-अपने समुदायों को अपने प्रभाव-क्षेत्र से बाहर आसानी से नहीं जाने देते.
ऐसे में “ऊंची-जातियां” भी कन्हैया को स्वीकारने में कोई परहेज नहीं करेंगी. चौथा: युवा और शिक्षित नेतृत्व- वैसे तो युवा नेता तेजस्वी, तेजप्रताप और चिराग भी हैं, लेकिन इनके बारे में यही धारणा है कि उनका राजनीतिक जीवन इन्हें उत्तराधिकार में मिला है, इसमें इनका कोई व्यक्तिगत योगदान नहीं है. जबकि इसके उलट कन्हैया राजनीतिक संघर्षों और उथल-पुथल के बीच से निकल कर आए हैं इसलिए इनके नेतृत्व और सामर्थ्य पर विचारधारा में भिन्नता के बावजूद प्रश्न नहीं लगाया जा सकता.
पांचवा: राजद के प्रति ‘ऊंची-जातियों” का पारंपरिक विरोध- बिहार में ऊंची जातियों का द्वन्द ये है कि ये किसी भी राजनीतिक दल को अपना समर्थन दे सकते हैं, लेकिन राजद इनका हमेशा अंतिम विकल्प ही होता है, क्योंकि इन्हें लगता है कि बिहार में इनके जातीय संरचना और वर्चस्व को सबसे अधिक राजद ने ही नुकसान पहुंचाया है.
छठा: जदयू की वर्तमान विफलता और उससे उपजा असंतोष- पहले कार्यकाल में नीतीश के प्रति जो विभिन्न जातियों का समर्थन था वह तत्कालीन राजद सत्ता के विरोध का परिणाम था. लोग किसी भी हालत में राजद को बाहर करने को बेचैन थे, और नीतीश उस समय एक मजबूत विकल्प भी थे. इसमें भी कोई संदेह नहीं कि अपने प्रथम कार्यकाल में नीतीश ने स्वास्थ्य, सुरक्षा, शिक्षा पर उल्लेखनीय कार्य किया, लेकिन बाद के कार्यकाल में इसमें जड़ता आ गई और इनकी कई अहंकार से भरी नीतियों से तेजी से इनकी लोकप्रियता घटी; जैसे शराब-बंदी, बेलगाम नौकरशाही, खराब शिक्षा-व्यवस्था, बेरोजगारी, दुर्बल-स्वास्थ्य-व्यवस्था, अपराध आदि.
सातवां: राम-मंदिर और धारा-370 के बाद भाजपा के सांस्कृतिक राजनीति की अप्रासंगिकता- भाजपा के राष्ट्रवादी एजेंडे में शामिल मुद्दे जैसे राम-मंदिर, धारा-370 आदि के क्रियान्वयन के बाद अब इनके पास कोई ठोस सांस्कृतिक-राजनीतिक विमर्श नहीं रह गया है जो शिक्षित-मध्य-वर्ग को लुभा सके, ऐसे में आर्थिक मोर्चे पर भाजपा की लगातार होती विफलता ने इसके मतदाताओं को विकल्पों की तरफ सोचने को बाध्य किया है.
उपरोक्त परिस्थितियों को देखते हुए कन्हैया का कांग्रेस में जाना बिहार में कांग्रेस को नवजीवन तो देगा ही साथ ही भाजपा के एकाधिकारवादी राजनीति और इसके वर्चस्व पर भी अंकुश लगा सकता है; इसके अतिरिक्त यह बिहार को परिवारवादी और जातिवादी राजनीति से आंशिक ही सही लेकिन बाहर निकाल सकता है. जरूरत है कन्हैया को अपनी जन-पक्षधरता और लोक-सरोकार को बनाये रखने की, क्योंकि बिहार की राजनीति में कई ऐसे भ्रष्टतम चेहरे हैं जो कभी विचारधारात्मक प्रतिबद्धताओं के लिए जाने जाते थे; कन्हैया खुद को कबतक बेदाग बचाए रख पाते हैं यह भविष्य ही बताएगा!