'वे बहुत मजबूत थीं, इसलिए कटु नहीं थीं'

कुछ ही तो आवाजें थीं जो इस अर्थहीन शोर को पार कर हमारे मनों तक पहुंचती थीं. आप क्यों चुप हो गईं कमलाजी?

WrittenBy:कुमार प्रशांत
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निरर्थक बातों का इतना शोर मचा है कि मन तरसने लगा है कि थोड़ी शांति तो हो, कि विवेक की कुछ निर्मल बातें कही व सुनी जा सकें. कहीं कहा भी मैंने कि एक चुप्पी ही इस शोर को कोई अर्थ दे सकती है. लेकिन यह आपसे नहीं कहा था कमलाजी! हमने ऐसा तो कहा ही नहीं था कि आप चुप हो जाएं. कुछ ही तो आवाजें थीं जो इस अर्थहीन शोर को पार कर, हमारे मनों तक पहुंचती थीं और भरोसा दिलाती थीं कि ऐसे पतनशील दौर को चुनौती देने के लिए कैसे और कब बोलना चाहिए. आप क्यों चुप हो गईं? आप चुप कैसे हो सकती हैं कमलाजी?

मेरा बहुत खास परिचय नहीं था उनसे और मिलना भी कम ही हुआ लेकिन कुछ था कि वे जब-तब मुझे याद करती थीं. हमारे संस्थान में आकर कभी यह तो कभी वह संदर्भ पूछती-खोजती थीं. कोई तीन साल पहले की बात याद आती है. मैंने उनको गांधी शांति प्रतिष्ठान की वार्षिक व्याख्यानमाला में आने का आमंत्रण भेजा था. तुरंत ही फोन आया. उन्हें वक्ता का चयन पसंद नहीं आया था. मैं उनका उलाहना सुनकर थोड़ा हतप्रभ रह गया, तो हंस कर बोलीं, “नहीं, यह वक्ता गलत है, ऐसा नहीं कह रही हूं. कह यह रही हूं कि आप अपने यहां महिलाओं को व्याख्यान के लिए नहीं बुलाते हैं. गांधीजी ने ऐसा तो कभी कहा नहीं होगा!” मैंने न गांधीजी का बचाव किया, न अपना. कहा, “आपकी यह शिकायत मैं आपको बुला कर ही दूर करूंगा.”

“ठीक है लेकिन इससे थोड़ा घबराती हूं कि आपके यहां गांधीजी का नाम जुड़ा होता है. मैंने गांधीजी को बहुत पढ़ा नहीं है. थोड़ा देख-समझ लूंगी तो फिर बात करूंगी. आप अपना वादा याद रखना भाई.”

मैंने याद रखा और अगले व्याख्यान के वक्त पूछा. वे तब कहीं और वक्त दे चुकी थीं, “लेकिन भाई मानती हूं आपको कि आप भूले नहीं!” मैंने वही कहा जो अभी कह रहा हूं: आपको भूलना संभव ही नहीं है. इसके बाद तो कोरोना ने सारा गणित ही उलट-पुलट दिया. और आप? आप तो इतनी दूर चली गईं कि अब आपको कैसे बुलाऊं मैं कमलाजी?

कई लोग कहते थे, आज भी कह रहे हैं कि कमला भसीन नारीवादी थीं. मैंने एक बातचीत में जब कहा कि मुझे आपके नारीवादी होने से कोई एतराज नहीं है लेकिन मेरी दिक्कत यह है कि मैंने आपकी बातों में हमेशा मनुष्यता की गूंज ही सुनी है! वे एकदम से खुश हो गईं. उनकी जैसी खुशी और उनका जैसा आह्लाद मैंने कम ही देखा है. खुशी उनकी आंखों से फूटती थी और आसपास सबको रौशन कर जाती थी.

मैंने फिर कहा, जो स्त्री के स्वतंत्र व स्वाभिमानी अस्तित्व के हक में बोली न बोलता हो, उसे आज हम मानवीय कह ही कैसे सकते हैं? आज मनुष्य होने का मतलब ही औरतों व दलितों व अल्पसंख्यकों के साथ खड़ा होना है! हम जिनके साथ खड़े होते हैं उनकी कमियों-कमजोरियों पर बात करने का सहज ही अधिकार पा जाते हैं. साथ का मतलब अंधी पक्षधरता नहीं, संवेदना के साथ जीना होता है. वे खुश हो कर बोलीं- 'भाई रे, तुम्हारे जैसा मैं बोल भले न सकूं लेकिन तुम्हारी बातों में मैं बोलती हूं, यह कह सकती हूं.'

अभी यह सब याद कर रहा हूं तो इसलिए कि उनके न रहने की खबर से व्यथित मन कुछ कमजोर हुआ जा रहा है. आज के माहौल को उनके जाने ने और भी अकेला कर दिया है. वे बहुत जिंदादिल थीं इसलिए बहुत मजबूत थीं.

वे बहुत मजबूत थीं इसलिए कटु नहीं थीं. वे कटु नहीं थीं इसलिए बहुत मानवीय थीं. पुरुष के आधिपत्य से और उसके अहंकार से वे बहुत बिदकती थीं. वे उसकी खिल्ली भी उड़ाती थीं उस तरह कि जिसे टोपी उछालना कहते हैं. वे उस हर बात, परंपरा, कहावत, कहानी, चुटकुले आदि की बखिया उधेड़ती थीं जो औरत को निशाने पर रखती हैं और खूब प्रचलित हैं. उनके लिखे गीत, कहानी व नारों तक में हम उनके इस तेवर को पहचान सकते हैं. वे लिखती ही नहीं थीं, मस्ती से गाती भी थीं. मुझे तो लगता है कि वैसा तेवर दूसरे किसी में देखा नहीं मैंने.

वे जनमी पाकिस्तान में थीं. ऊंची पढ़ाई राजस्थान में हुई. फिर समाजशास्त्र पढ़ने जर्मनी गईं. लंबे वर्षों तक संयुक्त राष्ट्रसंघ के साथ काम करती रहीं. इन सबने जिस कमला को गढ़ा, उसमें संकीर्णता व क्षुद्रता की जगह बची ही नहीं थी. सारी दुनिया को एक दुनिया मान कर सोचना-जीना किया उन्होंने. इसलिए दुनिया भर से उनके संपर्क थे, दुनिया भर में उनकी पहुंच थी.

एशियाई महिलाओं के लिए वे जैसी प्रतिबद्धता से बात करती थीं, वह सुनने व समझने जैसा था. वे आत्मविश्वास से भरी थीं लेकिन इतनी सहजता से जीती थीं कि वह आत्मविश्वास आत्मप्रचार नहीं बनता था. वे जोर से बातों को काटती थीं लेकिन बात कहने वाले को बचा ले जाती थीं. वे आदमी से नहीं, उसकी सीमाओं से लड़ती थीं.

उनके कैंसरग्रस्त होने की खबर मिली तो मैं कहीं बाहर था. वहीं से फोन किया. थोड़ी बुझी आवाज में बोलीं- 'भाई रे, यह कहां से आ पड़ा! मैंने कहा, आया है तो जाएगा भी कमलाजी!' जिस तपाक से वे हमेशा जवाब देती थीं, उस रोज वैसा कोई जवाब नहीं आया उधर से. 75 साल का सफर ऐसा होता ही है कि काया थकने लगती है, मन उखड़ने लगता है.

कहीं पाकिस्तान से ‘आजादी’ वाला नारा ले कर वे आईं थीं. फिर उसे ऐसा गुंजाया उन्होंने कि वह नारा नहीं, परचम बन गया. जब भी औरत की आजादी का वह नारा कहीं से उठेगा, उसके साथ ही उठेगी कमलाजी आपकी सूरत भी! विदा!

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