इतिहास में कभी भारत का हिस्सा रहे अफगानिस्तान को हमें किसी दूसरे चश्मे से नहीं बल्कि अफगानी नागरिकों के चश्मे से ही देखना चाहिए.
तालिबान किसी जमात का नहीं, उस मानसिकता का नाम है जो मानती है कि आत्मसम्मान के साथ आजाद रहने के लोकतांत्रिक अधिकारों का दमन हिंसा के बल पर किया जा सकता है. इस अर्थ में देखें तो महाशक्तियों का चेहरा तालिबानियों से एकदम मिलता है. सारी दुनिया की सरकारें कह रही हैं कि अफगानिस्तान से हम अपने एक-एक नागरिक को सुरक्षित निकाल लाने के लिए प्रतिबद्ध हैं. लेकिन अफगानिस्तान के नागरिकों का क्या? उनकी सेवा व विकास के नाम पर सभी वहां संसाधनों की लूट करने में लगे थे और आज सभी दुम दबा कर भागने में लगे हैं. हम देश से निकल भागने में लगे अफगानियों की तस्वीरें खूब दिखाई जाती हैं, अपनी कायरता की तस्वीर छुपा ली जाती है. लेकिन इतिहास गवाह है कि चाहे ब्रितानी हों, रूसी, अमेरिकी या हिंदुस्तानी, ऐसी ताकतें न कभी स्थायी रह सकी हैं, न रह सकेंगी.
म्यांमार में तो फौजी तानाशाही से लड़ कर जीते लोकतंत्र का शासन था न! शू ची न महाशक्तियों की कठपुतली थीं, न आतंकवादियों की. उनकी अपनी कमजोरियां थीं लेकिन म्यांमार की जनता ने, फौजी तिकड़मों के बावजूद, उन्हें अपार बहुमत से दो-दो बार चुना था. भरी दोपहरी में उनकी सरकार का गला घोंट कर फौज ने सत्ता हथिया ली. इसके बाद की कहानी जैसी अफगानिस्तान में है वैसी ही म्यांमार में है. वहां तालिबान के खिलाफ तो यहां फौजी गुंडागर्दी के खिलाफ आम लोग- महिलाएं-बच्चे-जवान- सड़कों पर उतर आए और अपना मुखर प्रतिरोध दर्ज कराया. दुनिया के हुक्मरान देखते रहे, संयुक्त राष्ट्रसंघ देखता रहा और वे सभी तिल-तिल कर मारे जाते रहे, मारे जा रहे हैं. संयुक्त राष्ट्रसंघ आज यथास्थिति का संरक्षण करते हुए अपना अस्तित्व बचाने में लगा एक सफेद हाथी भर रह गया है. उसका अब कोई सामयिक संदर्भ बचा नहीं है. आज विश्व रंगमंच पर कोई जयप्रकाश है नहीं कि जो अपनी आत्मा का पूरा बल लगा कर यह कहता फिरे कि लोकतंत्र किसी भी देश का आंतरिक मामला नहीं होता है.
म्यांमार व अफगानिस्तान की इस करुण-गाथा में भारत की सरकारों की भूमिका किसी मजबूत व न्यायप्रिय पड़ोसी की नहीं रही है. राष्ट्रहित के नाम पर हम समय-समय पर म्यांमार और अफगानिस्तान को लूटने वाली ताकतों का ही साथ देते रहे हैं. हम यह भूल ही गए हैं कि ऐसी कोई परिस्थिति हो नहीं सकती है जिसमें किसी का अहित हमारा राष्ट्रहित हो.
शायद समय भी लगे और अनगिनत कुर्बानियां भी देनी पड़ें लेकिन अफगानिस्तान की बहादुर जनता जल्दी ही अपने लोगों के इस वहशीपन पर काबू करेगी, अपनी स्त्रियों की स्वतंत्रता व समानता तथा बच्चों की सुरक्षा की पक्की व स्थाई व्यवस्था बहाल करेगी. सू ची फौजी चंगुल से छूटें या नहीं, फौजी चंगुल टूटेगा जरूर! हम खूब जानते हैं कि अपने पड़ोस में स्वतंत्र, समतापूर्ण और खुशहाल म्यांमार व अफगानिस्तान हम देखेंगे जरूर लेकिन हम यह नहीं जानते कि इतिहास हमें किस निगाह से देखेगा.
(लेखक गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष हैं)