क्या यह संयोग है कि उन्हीं मंचों के 'सर्वे' में सरकार दिलचस्पी लेती है जहां उसके नेता, सांसद नहीं लिखते और जो सत्ताधारी पक्ष की नहीं बल्कि मतदाता की बोली बोलते हैं?
ऐसी बंटी हुई परिस्थिति में जब कोई 'स्वतंत्र और निष्पक्ष' पत्रकार किसी राजनीतिक दल का तनखैया बनने का फैसला लेता है, तो उसके लिए उपर्युक्त धारणा अपने निर्णय के बचाव का एक ठोस बहाना बन जाती है. हाल के ऐसे दो उदाहरण हैं- जवाहरलाल नेहरू पर बेस्टसेलर किताब लिखने वाले बेहतरीन रिपोर्टर रहे पत्रकार पीयूष बबेले और फैक्टचेक वेबसाइट के रूप में शुरू हुई मीडियाविजिल के स्वामी-संपादक पंकज श्रीवास्तव, जिसका मोटो सीपी स्कॉट का यह प्रसिद्ध कथन है- 'विचार उन्मुक्त हैं लेकिन तथ्य पवित्र हैं'. ऐसे उम्दा (अब भूतपूर्व) पत्रकार भले अपने निजी निर्णय को अपनी ध्रुवीकृत 'कांस्टिचुएंसी' के बीच सही ठहरा ले जाएं, लेकिन तीसरा वाला चौथाई सेगमेंट जो है (जो मोटे तौर पर पत्रकारिता पर भरोसा करता था) वहां भरोसे की एक कड़ी तत्काल टूट जाती है और उधर से कुछ थोड़ा सा खिसक कर पहले वाले चौथाई में चला जाता है (जिन्हें मोटे तौर पर पत्रकारिता पर भरोसा नहीं रहा या जो उदासीन हैं).
सवाल यहां किसी के निजी निर्णय पर नहीं है. बात उसके लिखे-पढ़े से जुडी आबादी की है. यह बात तो पत्रकारिता में एक स्वयंसिद्ध तथ्य है कि आप यह मानकर ही लिखते हैं कि उसे आबादी का कोई हिस्सा पढ़ रहा होगा. जो स्वयंसिद्ध था, उसमें से आपका निजी निर्णय कुछ न कुछ खिसका देता है. वास्तव में यह एक निजी निर्णय नहीं, बल्कि पत्रकारिता की प्रस्थापना के स्तर पर आया बदलाव है. चूंकि खूंटा बदल गया है, तो आलोचनाएं अब निजी जान पड़ती हैं जबकि उससे पहले पत्रकारिता के बदले मिल रही सराहनाएं सामाजिक हुआ करती थीं. मुक्तिबोध ने शायद इन्हीं द्वैध क्षणों के लिए वर्षों पहले लिखा था:
उनको डर लगता है, आशंका होती है, कि हम भी जब हुए भूत, घुग्घू या सियार बने, तो अभी तक यही व्यक्ति, ज़िंदा क्यों?
जो जिंदा पत्रकार हैं, अभी 'भूत' नहीं बने हैं, वे इतनी हाहाकारी विभाजक स्थिति में भी अपना खूंटा नहीं छोड़ते. नतीजतन, वे न्यूज़लॉन्ड्री या न्यूज़क्लिक बन जाते हैं, सरकारी 'सर्वे' के काम आते हैं या फिर कहीं अप्रासंगिकता अथवा गुमनामी का शिकार हो जाते हैं. ताज़ा उदाहरण मिर्जापुर के युवा पत्रकार पवन जायसवाल का है जिन्हें पूरा देश सरकारी स्कूल के मध्याह्न भोजन में नमक-रोटी बांटे जाने की खबर करने के लिए जानता है, लेकिन कोई नहीं जानता कि वे फिलहाल गंभीर कैंसर से जूझ रहे हैं और उनके पास इलाज के लिए पैसे नहीं हैं.
राजनीति को जाहिर करने का सवाल
निष्पक्षता या वस्तुपरकता का सवाल सच्चा है या झूठा, यह पत्रकारिता की प्राचीन बहस है. जिस दौर में थोक भाव में पत्रकार पत्रकारिता छोड़कर अपने यहां आम आदमी पार्टी में जा रहे थे और विदेशी मीडिया उस पर रिपोर्ट कर रहा था, उसी वक्त दि गार्डियन में एंटोनी लोवेंस्टीन ने बड़ा दिलचस्प सवाल उठाया था. उन्होंने पूछा था कि पत्रकारों को आखिर क्यों नहीं यह सार्वजनिक करना चाहिए कि वे किसे वोट करते हैं. इस राय के पीछे उनका तर्क था कि पत्रकार अपने काम में अनिवार्यत: 'सब्जेक्टिव' होता है इसलिए उसे हितों के टकराव से बचने के लिए जवाबदेही सुनिश्चित करते हुए अपनी राजनीतिक आस्था जनता को बता देनी चाहिए. एक नज़र में यह बात दमदार जान पड़ती है, लेकिन इसका विशिष्ट संदर्भ ऑस्ट्रेलिया है जहां उस वक्त केवल 33 फीसदी जनता का मीडिया पर भरोसा बचा रह गया था. उनकी यह राय भले स्थानीय संदर्भों में थी, लेकिन दलीलें सार्वभौमिक किस्म की थीं.
इस तर्क का जवाब गार्डियन के स्तंभकार और पत्रकारिता के प्रोफेसर रॉय ग्रीनस्लेड ने बड़े कायदे से दिया था. उन्होंने कहा कि पत्रकार के लिए अपनी राजनीतिक आस्था को जाहिर करने का यह नुस्खा अव्वल तो बहुत जटिल है, दूजे यह पाठकों को विभाजित कर देगा. एक पत्रकार के लिखे में 'सब्जेक्टिव' पोजीशन को स्वीकार करते हुए भी उन्होंने लोवेंस्टीन की दलील को 'काउंटर-प्रोडक्टिव' करार दिया क्योंकि एक पाठक सबसे पहले कोई लेख देखते ही पत्रकार की राजनीतिक सम्बद्धता या आस्था को देखेगा, उसके बाद लेख पढ़ना है या नहीं इसे तय करेगा. अब सोचिए जरा कि भारत जैसे एक देश में- जहां पहले ही आधी आबादी नाम, चेहरा और बैनर देखकर पिछले कुछ साल से पढ़ने-सुनने की आदी हो चली है- एक पत्रकार का पूरी साफगोई से अपनी राजनीतिक आस्था को जाहिर कर देना या कोई राजनीतिक पाला पकड़ लेना पाठक/दर्शक समाज को और बांटने वाली कार्रवाई हुई या जवाबदेही की कारवाई?
हां, निजी रूप से बेशक उक्त पत्रकार ने अपनी 'कांस्टिचुएंसी' को और विस्तारित करने का काम भले कर लिया चूंकि एक बंटे हुए समाज में ही यह संभव है कि बंटवारा करने वाला कृत्य लोकप्रिय भी हो. रवीश कुमार से लेकर दिलीप मंडल और अर्नब गोस्वामी तक ऐसे दर्जनों चमकदार उदाहरण गिनवाए जा सकते हैं जिनका पेशेवर काम बुनियादी रूप से समाज के लिए विभाजनकारी है अथवा विभाजनों (जिसे हम अंग्रेजी में फॉल्टलाइंस कहते हैं) की खेती पर ही टिका हुआ है, लेकिन वे अपने-अपने खित्ते के ईश्वर नहीं तो ईश्वर प्रभृति बेशक हैं. इस प्रवृत्ति को हम उन डिजिटल मंचों में देख सकते हैं जिनकी फॉलोवर या सब्सक्राइबर संख्या लाखों-करोड़ों में है. कोई दलितों के लिए ढोल पीट रहा है, कोई मुसलमानों के लिए बीन बजा रहा है, कोई पिछड़ों के गीत गा रहा है और ज्यादातर तो हिंदुत्व का राग ही छेड़े हुए हैं. बीते दो साल में मजदूरों और किसानों की पीठ पर चढ़कर कुछ डिजिटल मंचों और पत्रकारों ने अपना दागदार अतीत धो-पोंछ कर चमका लिया है. विशुद्ध 'क्लास डिवाइड' की ऐसी मार्केटिंग काल मार्क्स देखते तो अपना माथा पटक लेते! इस प्रवृत्ति को राजनीति में देखना हो तो मायावती के हाथ में त्रिशूल और अखिलेश यादव के हाथ में परशुराम का फरसा देख लीजिए.
पत्रकारिता का विधर्म
कुछ लोगों ने समाज को बांटा था, कुछ और लोग बंटी हुई जमीन पर बैठकर धरती फटने की चेतावनियां जारी कर रहे हैं. दोनों की कांस्टिचुएंसी एक है- बीच का बंटा हुआ 50 फीसद, जो दर्जन भर पहचानों में बुरी तरह बंटा हुआ है. किसी को उस एक-चौथाई को बचा ले जाने की फिक्र नहीं है जो अब भी पत्रकारों के काम पर भरोसा करता है. किसी को भी उन एक-चौथाई उदासीन लोगों में उम्मीद जगाने की चाह नहीं है जो प्रतिक्रिया में कहीं भी जाने को तैयार बैठे हैं. पत्रकारिता का असल धर्म इस आधे बफर को बचाने का होना था. पत्रकारिता दूसरे आधे में से अपना हिस्सा साधने में जुटी है. यह विधर्म है.
ऐसे में आयकर विभाग के 'सर्वे' पर न्यूज़लॉन्ड्री के आधिकारिक वक्तव्य का यह वाक्य, कि- 'हम जनहित की पत्रकारिता करते रहेंगे क्योंकि यही हमारे होने का आधार है'- फिलहाल आश्वस्त करता है कि कुछ चीजें हैं जो राजनीति द्वारा बनाए गए पाले का हिस्सा नहीं बनेंगी. ऐसी ही एक उम्मीद कोरोना के दौर में दैनिक भास्कर ने भी जगायी थी, यह वक्त है कि पत्रकारिता के समकालीन धर्म और विधर्म पर हमारे यहां खुलकर चर्चा हो. पत्रकारों के निजी कृत्यों से इतर सामान्य प्रवृत्तियों पर बात हो और इस तथ्य को स्थापित करने की कोशिश की जाय कि पत्रकारिता का आखिरी धर्म पत्रकारिता ही है वरना पेट चलाने के लिए तो शनि बाजार में ठेला लगाना एक बेहतर विकल्प है. आप ठेला शनि बाजार में लगाएं या किसी राजनीतिक पार्टी के दफ्तर में दुकान, उसका ईमानदार तर्क आजीविका ही होना चाहिए. पत्रकारिता और सामाजिक बदलाव की दलील देकर दुकानदारी बंद होनी चाहिए. इस पर बिना किसी लाग लपेट के अब बात होनी चाहिए जैसा आठ साल पहले गार्डियन में हुई थी, वरना छोटी-छोटी प्रतिबद्धताओं को ऐसी हरकतें कच्चा निगल जाएंगी और शिष्ट व प्रतिबद्ध पत्रकार व मंच अपनी सज्जनता में मारे जाएंगे.
आज सघन होते अंधेरे के बीच हिंदी की जली हुई ज़मीन पर जो भी पत्रकार और मंच अब भी पत्रकारिता की खेती कर रहे हैं, करना चाह रहे हैं, करना चाहते थे लेकिन कर नहीं पा रहे हैं, उनके लिए फिर से मुक्तिबोध की केवल दो पंक्तियां:
पशुओं के राज्य में, जो पूनों की चांदनी है, नहीं वह तुम्हारे लिए, नहीं वह हमारे लिए.