अभिभावकों का कहना है कि तालाबंदी के दौरान उनके बच्चों में पढ़ने-लिखने की क्षमता कम हो गई है, वे सिर्फ स्कूल खुलने का इंतजार कर रहे हैं.
कैसे पूरा होगा साक्षरता का लक्ष्य
कोरोना वायरस के आने के बाद से करीब 17 महीनों से स्कूल बंद हैं. अभी हाल ही में कुछ प्रदेशों में स्कूल खुले हैं लेकिन वह सिर्फ 9-12वीं कक्षा तक के लिए हैं. अभी प्राथमिक स्कूल नहीं खुले हैं. जिसके कारण बच्चों की पढ़ाई का नुकसान हो रहा है.
केंद्र सरकार ने नई शिक्षा नीति 2020 में साक्षरता को लेकर लक्ष्य निर्धारित किया है. जिसके मुताबिक 2030 तक देश में साक्षरता दर को 100 प्रतिशत करना है. सरकार ने जब यह नीति लॉन्च की तब से लेकर अभी तक स्कूल नहीं खुले हैं. सरकार की कोशिश है कि प्री स्कूल से हायर सेकेंडरी स्कूल में 100 प्रतिशत जीआरई को पूरा किया जाए. साथ ही सरकार ने कहा कि दो करोड़ बच्चे जो अभी स्कूल में नहीं पढ़ रहे हैं उनको वापस स्कूल में लाने पर काम करेगी.
साक्षरता दर क्या पूरा किया जा सकता है, इस पर रितिका खेड़ा कहती हैं, “यह टारगेट मुश्किल तो नहीं है लेकिन इसे पूरा करने के लिए दृढ़ निश्चय चाहिए. सरकार को फोकस होकर स्कूल एजुकेशन पर काम करना होगा.”
रितिका कहती हैं, “स्कूल एजुकेशन को लेकर सरकार कि मंशा क्या है? क्योंकि सरकार ने इस साल स्कूल एजुकेशन के बजट में 10 फीसदी की कटौती की है. अगर हमें स्कूली शिक्षा पर ध्यान देना है तो सरकार को उसपर एक प्लानिंग के साथ काम करना होगा.”
वर्तमान में तमिलनाडु सरकार के साथ काम कर रहे डैक्सटर बताते हैं, “कोविड -19 के नुकसान से शिक्षा के पुनर्निर्माण के इस चरण में, हमें केवल साक्षरता लक्ष्यों पर जोर नहीं देना चाहिए. ग्रामीण इलाकों में बच्चों के पास ऑनलाइन स्कूल की पहुंच नहीं होने के कारण, लगभग पिछले डेढ़ साल से बहुत कम पढ़ाई हो पायी है. इसलिए इस समय, यह महत्वपूर्ण है कि स्कूल फिर से खुल जाएं और हर छात्र को एक शिक्षक मिले जो उन्हें पढ़ा सकता है.”
“छात्रों में बुनियादी शिक्षा और साक्षरता ही नहीं है, पर उनको समग्र विकास पर जोर देना चाहिए. ताकि वे आजीवन सीखने के कौशल को विकसित कर सकें, जैसे हमारी राष्ट्रीय शिक्षा नीति भी कहती है. हमारे स्कूलों को भविष्य में लॉकडाउन की संभावना के लिए भी तैयार रहने की जरूरत है. यदि भविष्य में कोई लॉकडाउन हो तो हमें उस समय में भी विद्यार्थियों के सीखने के लिए व्यवस्था करने की आवश्यकता है.” सैम ने कहा.
अनिल अग्रवाल कहते हैं, “एनईपी को पूरा नहीं कर पाएंगे. ग्राउंड पर कुछ नहीं हो रहा है. रियलिटी में ऐसा कुछ नहीं हो रहा जिससे यह कहा जाए कि एनईपी के टागरेट को पूरा कर लिया जाएगा. एनईपी में कहा गया कि दो करोड़ बच्चों को जोड़ना है, जबकि हमारा मानना है कि ऑनलाइन के चक्कर में करीब 10 करोड़ बच्चे पढ़ाई से दूर हो गए हैं. अभी ऐसा है कि जिसके पास पैसा है उसके बच्चे पढ़ रहे हैं, जिसके पास नहीं वह बच्चे अब नहीं पढ़ पा रहे हैं. यही हकीकत है.”
स्कूली शिक्षा पर आपात रिपोर्ट में भी कहा गया है कि ग्रामीण अनुसूचित जाति/जनजाति के 98 फीसदी अभिभावक चाहते हैं कि जितना जल्द मुमकिन हो स्कूल खोले जाएं.
रितिका खेड़ा कहती हैं, “हमने अपने सर्वे में जब लोगों से बात की तो उन्होंने स्कूल खोलने पर अपनी सहमति जताई. अभिभावक कहते हैं, हम मजदूरी करने के लिए बाहर निकल रहे हैं, काम रहे हैं ताकि बच्चे खा सकें. अगर कोरोना होना होता तो हमें भी हो सकता था, लेकिन अभी कोरोना की स्थिति में सुधार है इसलिए अब कोरोना का बहना छोड़कर हमें स्कूल खोलने चाहिए.”
स्कूल खोलने को लेकर अनिल अग्रवाल कहते हैं, “आप देखिए कि दिल्ली में कई दिनों से कोरोना के कारण एक भी मौत नहीं हो रही है. वहीं रोजाना स्तर पर केवल 60-70 मामले सामने आ रहे हैं. इसलिए अब कोरोना की आड़ लेकर छुपना नहीं चाहिए बल्कि स्कूल खोलना चाहिए, क्योंकि बच्चों की पढ़ाई का बहुत नुकसान हो रहा है.”
सर्वे में दलितों और आदिवासियों को लेकर भेदभाव का एक उदाहरण भी दिया गया है. झारखंड के लातेहार जिले के कुटमु गांव में ज्यादातर दलित और आदिवासी परिवार हैं, लेकिन पढ़ाने वाली शिक्षिका अगड़ी जाति से हैं. शिक्षिका के परिवार के लोगों ने सर्वे करने वाली टीम से कहा, “अगर इनके बच्चे पढ़-लिखेंगे तो हमारे खेतों में काम कौन करेगा?”
इस गांव में सर्वे करने वाली टीम ने करीब 20 दलित-आदिवासी बच्चों से भी बात की. वह सभी पढ़ने में असक्षम थे. शिक्षिका कभी-कभी स्कूल आती हैं, आने के बाद आराम फरमाती है. बच्चों के परिजनों ने सर्वे टीम से शिक्षिका को लेकर शिकायतें तो कि लेकिन इसको लेकर कुछ भी करने में लाचार है.