केरल केंद्रीय विश्वविद्यालय ने एक पत्र जारी किया है जिसमें शिक्षकों को सावधान किया गया है कि वे भड़काऊ, राष्ट्रविरोधी या राष्ट्रहित के विरोध में यदि भाषण देंगे तो उन पर सख्त अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाएगी.
ऐसे अनेक उदाहरण ज्ञान विज्ञान के विषयों से दिए जा सकते हैं. मान लीजिए राजनीति विज्ञान या समाजशास्त्र का कोई शिक्षक भारत की अब तक की केंद्रीय सरकारों या अब तक के प्रधानमंत्रियों के बारे में अपनी कक्षा में चर्चा कर रहा है या कोई लेख ही लिख रहा हो और उसी क्रम में यदि वह वर्तमान सरकार या प्रधानमंत्री की तार्किक आलोचना करता है तो उस का यह अकादमिक कार्य ‘राष्ट्रविरोधी’ सिद्ध हो जाएगा? कक्षा में कही गई या लेख में लिखी गई बात क्या इतनी नागवार गुजरेगी कि उस के संस्थान के कुलपति पर इतना दबाव बनने लगेगा कि उस शिक्षक पर कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाने लगेगी? ऐसा भारत के विश्वविद्यालयों में हो रहा है.
पिछले दो वर्षों में विश्व भारती विश्वविद्यालय में 11-11 शिक्षक और शिक्षकेतर कर्मचारी अलग-अलग कारणों से निलंबित किए जा चुके हैं. 150 से अधिक कारण बताओ नोटिस जारी किए जा चुके हैं. इन सब से यही लगता है कि भारत के विश्वविद्यालयों में जो भी रही सही ज्ञान, तर्क और संवाद की स्थिति थी वह नष्ट कर दी गई है. ज्ञान की प्रक्रिया गहन बहस तर्क-वितर्क और स्वतंत्र चिंतन से जुड़ी हुई है. ऐसे में जब यह डर शिक्षकों और विद्यार्थियों पर हावी रहेगा कि उन के बोले या लिखे में कहीं कोई ऐसी बात न हो कि उस पर ‘राष्ट्रविरोधी’ चस्पा लग जाए तो वे क्या नए ज्ञान का सृजन कर पाएंगे? तब क्या यह निष्कर्ष निकाल लिया जाए कि अब भारत में ‘विश्वविद्यालय के विचार’ में पूरी तरह परिवर्तन हो गया है?
विश्वविद्यालय अब स्वायत्तता, उन्मुक्तता, सृजनात्मक वैचारिकता की जगह नहीं हैं बल्कि जो दल सत्ता एवं सरकार में है उस की एक विस्तारित एजेंसी के रूप में हैं और वे सरकार की किसी भी योजना, नीति या कार्य का अनुपालन करने के लिए बाध्य हैं. क्या अब संभव नहीं है कि किसी भी विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग को अपनी संगोष्ठी के दौरान यह लगे कि ‘नोटबंदी’ बिलकुल ही जनविरोधी नीति थी तो वह इसे खुल कर कह सके? ऐसा इसलिए कि अगले ही क्षण ‘कारण बताओ नोटिस’ से लेकर निलंबन बर्खास्तगी तक संभव है.
प्रेमचंद ने साहित्य के बारे में कभी कहा था कि “वह देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सचाई भी नहीं, बल्कि उनके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सचाई है.” इस प्रसिद्ध वाक्य में साहित्य को ‘देशभक्ति’ से भी आगे की वस्तु माना गया है. हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि प्रेमचंद ने यह वाक्य तब कहा था जब भारत में आजादी के लिए संघर्ष जारी था फिर भी किसी ने भी प्रेमचंद की देशभक्ति पर न तो शक किया और न ही उन को ‘राष्ट्रविरोधी’ कहा.
क्या आज के वातावरण में कोई शिक्षक ऐसी बात कहने का साहस कर सकता है और उस के कह देने पर उस के सही सलामत बचे रहने की स्थिति है? पहली बार में इस प्रश्न का जवाब ‘नहीं’ ही आता है. तब क्या यह कहा जा सकता है कि सरकारी तंत्र के हिसाब से भारत के विश्वविद्यालयों में ‘वैचारिक अनुकूलन’ की प्रक्रिया बहुत जोर-शोर से चल रही है? यह ‘वैचारिक अनुकूलन’ सत्ताधारी दल की विचारधारा के अनुरूप ही होगा, हो रहा है.
यानी वर्तमान राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में देश और सरकार को पर्यायवाची बना दिया गया है. यह धारणा प्रचार और सत्ता का इस्तेमाल कर के सामान्य समझ का हिस्सा बनाई जा रही है कि सरकार ही देश है और सरकार का विरोध देश का विरोध है. आज भारत आजादी का ‘अमृत महोत्सव’ मना रहा है. पर क्या आज फिर एक बार राष्ट्रकवि दिनकर की तरह किसी शिक्षक को यह कहने का अवकाश है-
है कौन जगत में, जो स्वतंत्र जनसत्ता का अवरोध करे?
रह सकता सत्तारूढ़ कौन, जनता जब उस पर क्रोध करे?
आजादी केवल नहीं आप अपनी सरकार बनाना ही,
आजादी है उसके विरुद्ध खुलकर विद्रोह मचाना भी
‘रोटी और स्वाधीनता’ शीर्षक यह कविता 1953 ई. की है पर आज हालत यह है कि ‘सरकार के विरुद्ध खुलकर विद्रोह मचाने’ की बात तो दूर की है, एक साधारण शिक्षक की साधारण आलोचना भी सत्ताधारी दल या उससे जुड़े संगठन के लोग बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं. तब क्या हम सच में मान लें कि भारत के विश्वविद्यालयों में अब उम्मीद की जगह सिर्फ अंधेरा है?
(लेखक- योगेश प्रताप शेखर, सहायक प्राध्यापक (हिंदी), दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय)
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