भारत में आम जीवन की दिनचर्या दाल-रोटी और दाल भात के बिना कहां पूरी होती है. लेकिन बीते कुछ वर्षों से अरहर दाल की कीमतें हर साल हाहाकार मच रही हैं.
खरीफ के साथी दलहन और तिलहन
यदि पांच प्रमुख दलहन फसलों को रबी और खरीफ के आधार पर बांटकर देखें तो दलहन फसलों में कुल 60 फीसदी की हिस्सेदारी अकेले रबी सीजन में चना (2020-21 में रिकॉर्ड 126 लाख टन) रखता है. यदि दलहन के कुल उत्पादन (2020-21 में 255 लाख टन) में से चना को हटा दें तो अरहर, मूंग, उड़द और मसूर के उत्पादन, क्षेत्र और उपज का सिर्फ 40 फीसदी आंकड़ा शेष रहेगा. दलहन में चना एक मजबूत स्तंभ है और अन्य दालों के मुकाबले इसका उपभोग कई तरह से किया जा सकता है.
हालांकि, रबी सीजन में चना क्षेत्र, उत्पादन और उपज बढ़ाना अब भी एक चुनौती है. अच्छे और उन्नत बीजों का अभाव है. दलहन क्षेत्र में एक बड़ा संकट खरीफ सीजन में बोई जाने वाली प्राइम दालों का है, जिसकी कीमतें करीब हर वर्ष बढ़ने के कारण गरीब और मध्यम वर्ग को झटका लगता है. इन प्राइम दालों में तुअर (अरहर), मूंग, उड़द शामिल हैं.
वहीं, खरीफ सीजन में ही बोई जाने वाली तिलहन फसलों में सोयाबीन की हिस्सेदारी सबसे ज्यादा है जिसने दाल पैदा करने के लिए बेहतरीन कृषि जलवायु वाले क्षेत्र विदर्भ में जल्दी बोई जाने वाली (अप्रैल-मई) मूंग और उड़द की पैदावार को न सिर्फ कम कर दिया है बल्कि तुअर की फसल को सीमित और स्थिर रखने में भी हिस्सेदारी कर रही है.
हालांकि आंकड़ों के हिसाब बुवाई क्षेत्र के मामले में कुल दलहन और तिलहन बिल्कुल बराबरी पर खड़ी दिखाई देती हैं. कृषि मंत्रालय के आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक, कुल दलहन का क्षेत्र वर्ष 2007-08 में 13 फीसदी था जो 2019-20 में एक फीसदी की बढ़त के साथ 14 फीसदी रहा. वहीं तिलहन 13 वर्षों बाद बिना किसी बदलाव के 14 फीसदी पर कायम है.
हालांकि, खरीफ सीजन में प्रमुख दलहन और तिलहन उत्पादन राज्यों के दलहन में अरहर, मूंग और उड़द और तिलहन में सोयाबीन के क्षेत्र, उत्पादन और उपज की तुलना से यह स्पष्ट होता है कि तय अनुपात ठीक नहीं है. बल्कि इस वक्त किसानों में सोयाबीन का आकर्षण ज्यादा है और प्रमुख क्षेत्रों में दलहन की उपेक्षा जारी है.
2020-21 में केंद्रीय कृषि मंत्रालय के तृतीय अग्रिम अनुमान के मुताबिक, देश में 134 लाख टन सोयाबीन का उत्पादन हुआ है जबकि कुल दलहन में अरहर, मूंग और उड़द 91.16 लाख टन है. 1990 में महाराष्ट्र का सोयाबीन का रकबा 20.0 लाख हेक्टेयर था और उत्पादन 1.89 लाख टन था जो 2019-20 में बढ़कर 37.36 लाख हेक्टेयर पहुंचा और उत्पादन 39.41 लाख टन जबकि 1990 में अरहर का रकबा 10.07 लाख हेक्टेयर था और उत्पादन 4.2 लाख टन था. 30 वर्षों में बाद 2019-20 में तृतीय अग्रिम अनुमान में अरहर का रकबा 11.95 लाख हेक्टेयर है और उत्पादन 9.72 लाख टन है. विकास के हिसाब से महाराष्ट्र में सोयाबीन हावी है.
वैज्ञानिक सी भारद्वाज ने कहा, "दाल उत्पादन के मामले में कभी अनाज या तिलहन को कभी मुकाबला नहीं कर पाएगा. चार ग्राम कार्बोहाइड्रेट एक ग्राम प्रोटीन के बराबर होता है. मिसाल के तौर पर किसी जगह पर यदि 40 किलोग्राम अनाज मिला है तो वहां 20 किलोग्राम तिलहन की फसल और 10 किलोग्राम ही दलहन मिलेगा."
दलहन को उत्पादन के मामले में तिलहन के बराबर खड़ा करने के लिए काफी क्षेत्र बढ़ाना होगा और फसल चक्र की अच्छी रणनीति अपनानी होगी. हालांकि तिलहन के बराबर दलहन क्षेत्र को बढ़ाने का विचार किसान के लिए काफी जोखिम भरा हो सकता है क्योंकि यह बाजार की प्रतिक्रिया पर ही निर्भर है.
जिन राज्यों में सोयाबीन नहीं है और वह अरहर की खेती बंद कर चुके हैं, वहां गेहूं और धान की लगातार फसल चक्र के कारण नुकसान उठाना पड़ रहा है. उत्तर प्रदेश के जिला मुख्यालय इटावा से 20 किलोमीटर दूर बिहारीपुर गांव में “द अन्नदाता सॉयल टेस्टिंग लैब” संचालित करने वाले मोहित यादव बताते हैं कि उनके क्षेत्र में अब खरीफ में 10 फीसदी भी दलहन की फसल नहीं बची है.
10 वर्ष पहले तुअर का रकबा काफी ज्यादा था. जैसे ही सिंचाई की व्यवस्था हुई वैसे लोगों ने तुअर छोड़कर धान की पैदावार शुरू कर दी. वह बताते हैं, "दलहन की फसलों के खत्म होने से मिट्टी में न सिर्फ नाइट्रोजन की कमी आ गई है बल्कि ऑर्गेनिक कार्बन भी सामान्य 0.5 फीसदी से कम ही मौजूद है. ऐसे में उत्पादकता पर असर आ रहा है और लागत भी बढ़ रही है. अरहर की खेती में काफी समय देना पड़ता था जबकि किसान नगदी फसलों की तरफ ज्यादा झुक गए हैं."
बिहारीपुर गांव में तीन वर्ष पहले खरीफ सीजन में कम पानी और लागत व उपज के साथ बेहतर आमदनी के लिए नगदी फसलों के विकल्प में बैंगन की खेती को चुना है. किसानों का कहना है कि इटावा के इस गांव से बैंगन की ज्यादातर मांग बिहार से आती है. अब किसान ऊंचे खेतों में इस ओर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं. सीमांत किसान दाल की खेती में नुकसान का बोझ नहीं उठा सकते.
उत्तर प्रदेश के श्रावस्ती जिले में पटना खरगौरा गांव की प्रधान ममता पांडेय बताती हैं, "छह हजार की आबादी वाले गांव में कभी 60 फीसदी लोग अरहर पैदा करते थे लेकिन अब 10 परिवार भी अरहर की खेती नहीं करते."
गांव के ही बक्षराज पासवान बताते हैं, “1990 के दशक में हमारे पास 10-12 बीघा जमीन थी, कुछ बिक गई और जो बची वो चार भाइयों में बंटी और करीब दो बीघे मेरे हिस्से आई. इसमें छह कुंतल धान और चार कुंतल गेहूं पैदा होता है, जबकि छेदा रोग के कारण दाल की उपज ही 20 से 25 किलो ही बची थी. एक कुंतल धान और दो कुंतल गेहूं अपने सात सदस्य वाले परिवार के लिए रखता हूं. बाकी की बिक्री होती है तो खेती से मेरी आमदनी प्रतिमाह 1,200 से 1,500 रुपए स्थिर है."
शाकाहारियों में प्रोटीन का प्रमुख स्रोत दालें हैं. लेकिन अरहर की खेती बंद होने से एक तरफ किसान प्रतिवर्ष प्रतिव्यक्ति निर्धारित 15 किलो दाल भी उपभोग नहीं कर पा रहे. वहीं दूसरी तरफ 2015 में 200 रुपए किलो तक पहुंची दाल ने 2021 में 130 और 150 रुपए तक का भाव पकड़ रखा है. व्यावसायिक सोयाबीन शहरी आहार जरूर में शामिल जरूर हो रहा है लेकिन गांवों के लिए सस्ती दालों तक पहुंच की आस अब भी है.
(साभार- डाउन टू अर्थ)