देश की राजधानी दिल्ली में दो दिन लगातार बारिश से सारी व्यवस्था चरमरा गई. पूर्व वन अधिकारी, पर्यावरण विशेषज्ञ और नदियों पर काम कर रहे मनोज मिश्रा जो यमुना जिये अभियान के संस्थापक भी हैं कहते हैं कि इस हाल के लिये खराब नगर निर्माण और अवैज्ञानिक तरीके से बिछाया गया सड़कों का जाल ज़िम्मेदार है. शहरों और खासतौर से राजधानी दिल्ली में बाढ़ की समस्या पर लेखक और पर्यावरण पत्रकार हृदयेश जोशी ने मिश्रा से बात की. कुछ अंश...
सवाल– दिल्ली एक बार फिर से पानी में डूब गई. सरकार की तैयारियां नाकाफी साबित हुईं? आप एक जल विशेषज्ञ के तौर पर इसे कैसे देखते हैं?
जवाब– सबसे पहले तो मैं यह कहना चाहूंगा आज जो हालात हैं दिल्ली में उसे किसी भी प्रकार से एक्ट ऑफ गॉड न माना जाये. यह कहना कि बहुत तेज बारिश हो रही है और इस हालात को रोका नहीं जा सकता, यह कहना ठीक नहीं है. यह समझ ले दिल्ली सरकार कि क्लाइमेट चेंज के संदर्भ में जो अभी हुआ है वह एक नमूना ही है… यह एक ट्रेलर है बस. दिल्ली को खुद को सुधारना और संवारना बहुत ज़रूरी है. दिल्ली को समझना चाहिये कि वह एक राजधानी है और यहां जो होता है वह पूरे देश में दिखाई देता है. राजधानी के चाणक्यपुरी में जैसा कि एक वीडियो वायरल हुआ है कि पूरी सड़क एक नदी बन गई है वह आपने देखा ही होगा. ऐसे ही कई इलाके हैं तो जो भी दिल्ली के आका लोग हैं चाहे लेफ्टिनेंट गवर्नर हों या मुख्यमंत्री हों या मनीष सिसोदिया हों उनको यह कहकर नहीं टालना चाहिये कि बहुत बारिश हो गई इसलिये ऐसा हुआ.
सवाल– आखिर कमी कहां है?
जवाब– देखिये हर किसी को बड़े शहर में ड्रेनज को समझने की ज़रूरत है. किसी भी बड़े शहर में दो प्रकार का ड्रेनेज होता है. एक वह है जो बरसात के समय में जो स्टॉर्म वॉटर ड्रेनेज (बरसाती नालों) के माध्यम से शहरी जगहों से निकलता है और दूसरा हमारे घरों से निकल कर सीवेज के रूप में बहता है. ये दोनों अलग हैं और इन्हें मिक्स नहीं होना चाहिये.
स्टॉर्म वॉटर ड्रेनेज के माध्यम से जो पानी यमुना में पहुंचता है उसमें सीवेज के मिक्स होने की जगह ही नहीं होनी चाहिये. देखिये दिल्ली एक ऊंची नीची जगह है, ऊबड़ खाबड़ जगह है. रिज और यमुना के कारण यह ऊंची-नीची है तो यहां किसी भी प्रकार की अर्बन फ्लडिंग, जो हम कई सालों से देख रहे हैं, उसे यहां होना ही नहीं चाहिये. यहां पश्चिमी दिल्ली से जो 17-18 नाले आ रहे हैं वो आराम से यमुना में पहुंचने चाहिये थे. पहले ऐसा ही होता था. असल में पहले तो दिल्ली की बरसात और दिल्ली की सर्दी का मज़ा लेने लोग यहां आया करते थे और आज हाल ये है कि लोग बारिश आने पर कहते हैं कि क्या मुसीबत आ गई.
सवाल– दिल्ली के इस ड्रेनेज सिस्टम और खासतौर से इन स्टॉर्म वॉट्र ड्रेनेज के बारे में बतायें?
जवाब– दिल्ली में तीन प्रकार के भौगोलिक ड्रेनेज सिस्टम हैं एक तो है नजफगढ़ ड्रेन का ड्रेनेज सिस्टम जो वहां का सारा कैचमेंट है. दूसरा है बारापुला ड्रेन का सिस्टम और तीसरा पूर्वी दिल्ली में है शाहदरा ड्रेन का निकासी सिस्टम. तो तीन मुख्य कैचमेंट हैं और पहले जब पानी आता था तो आसानी से ये सारा पानी इन तीनों सिस्टम के माध्यम से नदी में पहुंच जाया करता था. इसके अलावा दिल्ली में 700-800 वेटलैंड थे यानी तालाब जो बरसात का पानी इकट्ठा करते थे और उसे ज़मीन में भेज देते थे. ये तो करीब 20 साल पुरानी बात है. पहले दिल्ली में सड़कों के किनारे जितनी जगह थी वो सब पक्की और सीमेंटेड कर दी गई है और जो पानी ज़मीन में जाता था वो वहीं अटक जाता है. वह भूजल नहीं बन पा रहा है, तो दिल्ली को यह समझना होगा कि अपना परंपरागत यानी ट्रेडिशनल सिस्टम कैसे वापस लायें.
सवाल– क्या जो लोग दिल्ली को चला रहे हैं यहां के प्रशासक हैं. उन्हें यह एहसास ही नहीं रहा कभी कि आबादी बढ़ने और बसावट होने से यह हाल पैदा हो जायेंगे?
जवाब– देखिये दिल्ली वालों ने अभी जो अनुभव किया है वह कोई नई बात नहीं है. क्योंकि अगर ऐसा होता तो 1976 में दिल्ली का पहला ड्रेनेज मास्टर प्लान बनाने की ज़रूरत महसूस नहीं होती. इसका मतलब है कि 1960 और 1970 के दशक से ही दिल्ली में अर्बन फ्लडिंग को कंट्रोल करने की ज़रूरत महसूस की गई थी. और वो जो मास्टर प्लान बना था बड़ा अच्छा मास्टर प्लान बना था और उसमें पहली बार ये पता चला था कि दिल्ली में 201 नेचुरल ड्रेन (प्राकृतिक नाले) हैं और वही बरसात के पानी को अपने में समाते हैं और यमुना में ले जाते हैं. लेकिन वो जो मास्टर प्लान बना और जो सिफारिशें कीं हमें लगता नहीं कि उस पर कोई खास अमल किया गया.
ये दिल्ली के मैनेजरों का बड़ा दुर्भाग्यशाली रवैया रहा है क्योंकि यहां बरसात तो बहुत कम होती है तो (उन्हें लगता है) कुछ दिन अगर यहां के लोगों को परेशानी होती भी है तो चलेगा. कोई बड़ी बात नहीं है. इसलिये उस मास्टर प्लान पर कुछ खास नहीं हुआ लेकिन जब 2000 के दशक में जब अर्बन फ्लडिंग बहुत अधिक होनी लगी और सड़कों के किनारे ज़मीन को पक्का कर दिया गया था तब फिर ये महसूस किया गया कि एक नया ड्रेनेज मास्टर प्लान बनाने की ज़रूरत है और उसी के साथ साथ सीवेज मास्टर प्लान भी बन रहा था तो यह दोनों चीजें 2012, 13, 14, 15 में साथ साथ हुई हैं, तो हमारे पास दोनों मास्टर प्लान हैं सीवेज भी और ड्रेनेज मास्टर प्लान भी जो 2018 में बना तो क्या चीज़ की कमी है. ये एक प्रश्न है.
अब अगर हम देखें कि यह समस्या बार-बार क्यों आती है. एक सच यह भी है कि दिल्ली विधानसभा की एक पिटिशन कमेटी है और 2006 में विधानसभा की पिटिशन कमेटी की रिपोर्ट है. उन्होंने 2006 में बिना अपनी बात दबाये हुये ये बात कही है कि कमेटी को यह पता है कि सारे सीवेज और ड्रेनेज नेटवर्क के पुनर्निर्माण का काम लागू करना ज़रूरी है. उन्होंने बहुत सारी बातें कही थीं कि हर साल कई सौ करोड़ रूपया खर्च होता है और दिल्ली की विभिन्न म्युनिसिपल एजेंसियां कहती हैं कि हमने नालों से गाद हटा दी है और जब पानी आयेगा तो ऐसी परेशानी होगी नहीं लेकिन हर साल हम देख रहे हैं कि हालात बद से बदतर हो रहे हैं.
सवाल– आपने यमुना और पानी पर बहुत काम किया है और आप भोपाल में रहते हैं, उसे सरोवरों की नगरी कहा जाता है. क्योंकि भोपाल में अभी वॉटर बॉडी बची हुई हैं. दिल्ली की तरह हर जगह बिल्डिंग बन जाने और कचरा जमा होने की समस्या अपेक्षकृत कम है तो क्या भोपाल और दिल्ली की तुलना कर आप हमारे पाठकों को बता सकते हैं कि सरोवरों या वेट लैंड्स को बचाने से कितना फर्क पड़ता है?
जवाब– मैं तुलना तो कर सकता हूं लेकिन दिल्ली और भोपाल की तुलना करना ठीक नहीं है यह संतरों की तुलना सेब से करने जैसा होगा. भोपाल बहुत छोटा है राजधानी दिल्ली के मुकाबले. वह पूर्वी दिल्ली से भी छोटा है भोपाल लेकिन यह सच है कि भोपाल में भी अर्बन फ्लडिंग होती है क्योंकि यहां तो बहुत अच्छी बारिश होती है, लेकिन उसकी हालात दिल्ली जैसी नहीं होती. देखिये पूरा का पूरा भोपाल ही अनडुलेटिंग (ऊबड़-खाबड़) है. ऊंचा नीचा है. और यहां भी आराम से पानी गिरता है और ड्रेन के माध्यम से बेतवा में जाता है. आधा पानी बेतवा नदी में जाता है और बाकी नर्मदा में चला जाता है.
सवाल– लेकिन अगर हम वहां भी ऐसे ही बेतरतीब निर्माण करते रहे और कचरा भरते रहे तो भोपाल में भी दिल्ली जैसा हाल हो जायेगा. क्या यह कहना सही नहीं होगा?
जवाब– बिल्कुल… बिल्कुल… वहां भी और यहां भी हालात खराब होते जा रहे हैं. ये हमारे देश के हर बड़े शहर की स्थिति है क्योंकि जो हमारे शहरों के बड़े स्टॉर्म वाटर ड्रेन थे वो अब रहे ही नहीं, उनको हमने सीवेज ड्रेन बना दिया है और उसके साथ उनमें इतना कचरा डाल दिया है कि उनकी क्षमता बहुत कम हो गई है पानी ले जाने की. जितना पानी वह बरसात में ले जा पाते थे वह अब नहीं कर पाते हैं क्योंकि उसमें सीवेज और कचरा जाता है.
सवाल– दिल्ली के डिफेंस कॉलोनी इलाके में एक ऐसा स्टॉर्म वॉटर ड्रेन दिखाया था मुझे कुछ लोगों ने जिसे म्युनिसिपल बॉडी के लोगों ने कवर कर दिया… क्या आप ऐसे ही नालों की बात कर रहे हैं?
जवाब– बिल्कुल... दिल्ली के लिये डिफेंस कॉलोनी एक बहुत बड़ा सबक है क्योंकि वहां पर उन्होंने एक बहुत अच्छे खासे बड़े स्टॉर्म वॉटर ड्रेन को कवर कर दिया और इससे बड़ा गलत काम हम कर नहीं सकते क्योंकि उसे खुला फ्लो करना चाहिये. देखिये इन दोनों नालों में एक साफ अंतर है. स्टॉर्म वाटर ड्रेन यानी बरसाती नाले खुले रहने चाहिये और सीवेज हमेशा ढके यानी बन्द पाइपों में बहना चाहिये. जब तक आप उस (बरसाती) नाले को अनकवर नहीं करेंगे तो उस समस्या को हल नहीं किया जा सकता.