क्या तालिबान से पिता की विरासत को बचा पाएंगे अहमद मसूद?

अफगानिस्तान में अलग-अलग कबीले सत्ता के लिये लड़ते रहे हैं. देश के बड़े हिस्से पर तालिबान का क़ब्ज़ा हो जाने के बाद भी अफग़ानिस्तान लम्बे गृहयुद्ध की राह पर है.

WrittenBy:हृदयेश जोशी
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कमांडर बने लुटेरे

जिस अहमद शाह मसूद को दुभाषिये ने अफगानिस्तान का गांधी बताया वह असल में एक बेहतरीन गुरिल्ला कमांडर था. उसके पास 20,000 लड़ाके थे और उसने 1980 के दशक में आधा दर्जन से अधिक सोवियत हमलों को विफल किया और सोवियत कमांडरों ने इसे ‘अजेय और छापामार युद्ध में बेहद निपुण’ कहा था. तालिबान नाम से लिखी अहमद राशिद की किताब में इसका बेहतरीन वर्णन है. राशिद बताते हैं कि 1970 के दशक में सोवियत घुसपैठ के खिलाफ जिहाद में साथी रहे गुलबुद्दीन हिकमतयार से मसूद के रिश्ते बिगड़ गये. पाकिस्तान के खिलाफ मसूद की कड़वाहट पीछे हिकमतयार और तालिबान को दी जाने वाली मदद बड़ा कारण थी.

1990 के दशक में मसूद ने चार साल काबुल पर राज किया लेकिन उसके कमांडर दम्भी और अत्याचारी हो गये. दुकानों से चोरी करने लगे और नागरिकों को सताने लगे. इसीलिये जब तालिबान काबुल में घुसे तो अफगानी जनता ने पहले उनका स्वागत किया. वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमले से ठीक पहले मसूद की हत्या (तब मसूद की उम्र सिर्फ 48 साल थी) अल कायदा की साजिश बतायी जाती है जिसके प्रमुख ओसामा बिन लादेन को उस वक्त तालिबान ने अफग़ानिस्तान में शरण दी हुई थी. तो क्या अमेरिका पर हमले से पहले मसूद की हत्या उस बड़े योजना का हिस्सा थी?

जूनियर मसूद के लिये सबक

मसूद के घोर समर्थकों और रिश्तेदारों (उनमें से एक ने दावा किया कि वह मसूद का ससुर है) के साथ एक दिन बिताना उन्हें (मसूद को) समझने के लिये काफी न था. फिर भी हिन्दुकुश पहाड़ियों के हर कोने से वाकिफ इस कमांडर के बारे में जो पढ़ा था तकरीबन वही तस्वीर इन लोगों के बयानों में झलकी. कई घंटों तक लगातार काम में जुटे रहना, छापामार लड़ाकों की तैनाती और हथियार खरीदने से लेकर अकाउंट का हिसाब जैसे हर मामले की बारीकियों पर मसूद की नज़र रहती, लेकिन एक मामले में मसूद की असफलता उस पर और अफगानिस्तान की तकदीर पर भारी पड़ी.

मसूद दूसरे समुदायों और कबीलों के कमांडरों से गठजोड़ न कर सका. राशिद लिखते हैं कि वह एक बहुत अकुशल राजनेता था जो अफगानिस्तान के उन दूसरे पश्तून लड़ाकों को हिकमतयार के खिलाफ लामबंद न कर सका जो उससे नफरत करते थे. अफगानिस्तान में शांति लाने के लिये एक ताजिक-पश्तून गठजोड़ बेहद ज़रूरी था. आज तालिबान के खिलाफ दम भर रहे जूनियर मसूद और उनके साथियों को समझते होंगे कि अहमद शाह मसूद ने कहां गलती की.

असल में ताजिक क़ाबुल पर कभी 1929 के असफल विद्रोह को छोड़कर शासन नहीं कर पाये हैं और पश्तून उन पर भरोसा नहीं करते. अफगानिस्तान एक बार फिर से लम्बे गृहयुद्ध की राह पर है. अहमदमसूद और सालेह ने साफ किया है कि तालिबान काबुल पर राज कर सकता है लेकिन बाकी कबीलों को भी सत्ता में हिस्सेदारी चाहिये. अब पंजशीर को तालिबान से मुक्त रखने के लिये चाहे अमरुल्लाह सालेह हों या अहमद मसूद और उनके साथी, सभी ज़रूर सीनियर मसूदकी ताकत और कमज़ोरियों से सबक लेंगे.

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