सामाजिक विसंगतियों का बेबाक चिंतन है उपन्यास ‘नेपथ्य लीला’

कई चैप्टरों में बंटी इस किताब में हर चैप्टर अपनी तरह से एक बात कहने की कोशिश करता है.

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हमारे आसपास एक तरह की हताशा चारों तरफ़ नजर आ रही है. यह मोहभंग का भी दौर है. अपने उपन्यास में ऐसे निराशा भरे महौल में उन्होंने समाज की विसंगतियों को चुटीली शैली में सामने लाया है. उपन्यास 'नेपथ्य लीला' के केंद्र बिंदु में बाजार है और बाजार के केंद्रबिंदु में हम. बाजार हमें किस तरह से बदलता है. तोड़ता-मरोड़ता है, इन्हीं बातों को लेखक एक धागे में पिरोता है. कई चैप्टरों में बंटी इस किताब में हर चैप्टर अपनी तरह से एक बात कहने की कोशिश करता है.

उन्हें हमारे दौर में हिन्दी के सबसे प्रतिभाशाली व्यंग्य लेखक के रूप में आदर प्राप्त है. उनके व्यंग्य स्थितियों की जड़ता की विडम्बना दर्शा कर ही अपना दायित्व पूरा नहीं कर लेते अपितु इसके कारणों की तलाश करते हुए इस जड़ता की बेचैनी भी प्रकट करते हैं.

'नेपथ्य लीला' में जिस चीज ने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया वो इसकी भाषा शैली है. ज्ञान चतुर्वेदी के नये उपन्यास 'नेपथ्य लीला' उनके विराट साहित्यिक यात्रा की एक शानदार झांकी जैसा है. इस कृति में लेखन की एक अलग ही रेंज दिखती है. इसे पढ़ते हुए कई बार लगता ही नहीं कि हम, नरक यात्रा, बारामासी या मरीचिका वाले लेखक को ही पढ़ रहे हैं. एक नया ज्ञान चतुर्वेदी इस उपन्यास में बार-बार अपनी दस्तक देता है, नए सार्म्थय और विषय के साथ. यहां भाषा में विट उनकी पिछली रचनाओं जैसा ही है, लेकिन विषय की गंभीरता और उसके देखे जाने के तरीके यहां बात कहने की स्टाइल को बदल देते हैं.

इसी तरह की अलंकृत नए शब्दावली के साथ यह उपन्यास हमारे चेतन पर गम्भीर चोट करता है. सारे के सारे पात्र और उनकी शैली आपको खूब हंसाएगी भी और रुलायेगी भी. जब आप भारत के वास्तविक दुर्दशा का चित्रण इस अंलकृत हिंदी में पढ़ते हुए गंभीरतापूर्वक सोचेंगे तो कटुसत्य से परिचय होगा. यह व्यंग्य हमारे ऊपर ऐसा प्रहार है.. यह हमें सोचने के लिए विवश करता है. लेखक की अपनी एक अर्जित भाषा शिल्प है, जो उन्हें बाकी व्यंग्यकारों से अलग तो बनाती ही है, साथ ही भाषा का एक नया संसार भी रचती है. प्रस्तुत कृति में भी भाषा के जरिए एक जादू बिखरने की कोशिश की गई है. अगर आप यथार्थ को सीधा नहीं व्यंग्य की चाशनी के साथ पगाकर पढ़ने में यकीन करते हैं तो ज्ञान की यह किताब आपके लिए है.

ज्ञान चतुर्वेदी के उपन्यास ‘नेपथ्य लीला' में परिवेश का तटस्थ अवलोकन, मूल्यहीन सामाजिकता का सूक्ष्म विश्लेषण और करुणा से पगा निर्मम व्यंग्य जिस तरह इस उपन्यास में मौजूद है, वह ज्ञान चतुर्वेदी की असाधारण लेखकीय क्षमता और उनके हमारे समय का प्रतिनिधि व्यंग्यकार होने का प्रमाण है. हमेशा कि तरह चतुर्वेदी जी अपेक्षाओं पर खरे उतरे है.

ज्ञान चतुर्वेदी हिंदी के उन पहले रचनाकारों में से हैं जिन्होंने व्यंग्य को विधा का दर्जा दिलाया और उसे हल्के–फुल्के मनोरंजन की परंपरागत परिधि से उबारकर समाज के व्यापक प्रश्नों से जोड़ा. उनकी व्यंग्य रचनाएं हमारे मन में गुदगुदी ही पैदा नहीं करतीं बल्कि हमें उन सामाजिक वास्तविकताओं के आमने–सामने खड़ा करती हैं. वर्तमान सामाजिक व राजनैतिक व्यवस्था में पिसते मध्यमवर्गीय मन की सच्चाइयों को उन्होंने बहुत ही निकटता से पकड़ा है. उन्होंने अपने लेखन में सदैव विवेक और विज्ञान–सम्मत दृष्टि को सकारात्मक रूप में प्रस्तुत किया है. उनकी भाषा–शैली में खास किस्म का अपनापन महसूस होता है.

'नेपथ्य लीला' में फंतासी और कल्पनाओं के जरिए पात्रों के माध्यम से उनसे उपजने वाले हालातों को टटोलने की कोशिश की गई है. पिछली उपन्यासों से उलट यहां एक अलग तरीके से भाषा का चमत्कार किया गया है. ये व्यंग्य चुभते हुए नस्तर जैसा है. हम उन्हें पढ़ते हुए सायास अनुभव करते हैं कि, कैसे ज्ञान चतुर्वेदी अपने सम्पूर्ण साहित्यिक लेखन को अद्भुत भाषा शैली, मिथकीय शिल्प और देशज मुहावरों से गढ़ा है.

मशहूर व्यंग्यकार रवींद्रनाथ त्यागी का लिखा बरबस ही याद आ रहा है कि, सिर्फ़ ज्ञान चतुर्वेदी एक ऐसा व्यंग्य-लेखक है, जिसकी प्रतिभा किसी गंवई स्टेशन पर दूर से आती हुई डाकगाड़ी की हेडलाइट की भांति चमकती है और जो धड़धड़ाती हुई आगे निकल जाती है. लिखने में सचमुच अद्वितीय, ज्ञान चतुर्वेदी उन विरले लेखकों में से हैं, जो 'क्लासिकल' होने की सारी आशंकाएं अपने भीतर समेटे हैं.

पुस्तक : नेपथ्य लीला - ज्ञान चतुर्वेदी

प्रकाशक - राजपाल एंड संस

मूल्य - रु-295

(आशुतोष कुमार ठाकुर बैंगलोर में रहते हैं, पेशे से मैनेजमेंट कंसलटेंट हैं तथा कलिंगा लिटरेरी फेस्टिवल के क्यूरेटर तथा को-डाइरेक्टर हैं,)

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