'कम्पल्शन' के दरबार में 'कन्विक्शन' का इकरार

लोकतंत्र में किसी की मर्ज़ी कहां चलती है? ‘कंपल्‍शन’ इतनी भी बुरी बात नहीं है. यह इंसान को निरंकुश होने से बचाती है.

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आज के शब्द हैं- ‘कंपल्‍शन’ और ‘कन्विक्शन’. कोई चीज किसी का कंपल्‍शन है, माने उसकी मजबूरी है और कन्विक्शन है यानी उसका संकल्‍प है मने इच्‍छा है, मनमर्ज़ी है. वाक्य में प्रयोग इस प्रकार से किया जा सकता है- "पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ाना पूर्ववर्ती सरकारों का ‘कंपल्शन’ था. आज पेट्रोल और डीजल के दाम बढ़ाना मोदी सरकार का ‘कन्विक्शन’ है." यह अंग्रेजी के दो शब्‍दों को समझाने के लिए किया गया महज वाक्‍य-प्रयोग नहीं है. खुद मोदी सरकार के प्रधान नेता नरेंद्र मोदी ने उद्योगपतियों के एक सम्मेलन को संबोधित करते हुए यह बात कही है.

अब आप इसे भले ‘गलत’ मान लें, लेकिन कहिएगा नहीं क्योंकि मोदी सरकार की मध्य प्रदेश शाखा ने ‘गलत’ को असंसदीय करार दे दिया है. गलत को ‘गलत’ कहना अब असंसदीय है, लेकिन शब्दों को उनके सही मायने के साथ समझे ‘मात्र’ जाने पर अब तक कोई प्रतिबंध नहीं लगा है.

प्रधानमंत्री ने आज उद्योगपतियों के सम्मेलन में कहा कि पहले की सरकारें मजबूरी में आर्थिक सुधार करती थीं, उन्हें विदेशी निवेश लाने से डर लगता था. मेरी सरकार आत्मनिर्भर सरकार है. मैं अपने ‘कन्विक्शन’ से चलता हूं. मुझे लगता है कि उद्योगों को बढ़ावा देने के लिए जो कुछ भी करना चाहिए वह किया जाना चाहिए. उन्होंने यह भी कहा कि हम अपनी आत्मा से चलते हैं. अपनी मर्जी से ऐसे काम करते हैं जो आप लोगों के मुनाफे में दिन दूनी रात चौगुनी की तीव्र गति से इजाफा कराएं. उन्होंने अंत में कहा कि इस आत्मनिर्भर भारत की मुहिम में अब आप लोगों को भी साथ देना चाहिए.

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इस भाषण से और इसमें प्रयुक्त दो शब्दों से मोदी ने उन भाषणों की भी याद दिला दी जो उन्होंने विदेश में कई अवसरों पर दिए थे- कि आइए, हम आपको चीप लेबर देंगे, ज़मीनें देंगे, आपके लिए हर रोज़ एक-दो क़ानूनों की बलि चढ़ाएंगे, वगैरह वगैरह लेकिन कई साल बीत जाने के बाद भी कोई नहीं आया. आज वही भाषण घर में बैठे उद्योगपतियों के सामने प्रस्तुत कर दिया गया.

पूरे भाषण में नया कुछ नहीं सिवाय इसके कि हम ‘मजबूर’ नहीं हैं. पिछली सरकारें मजबूर थीं. अब ये बात उद्योगपति भी समझ रहे हैं कि मजबूर तो आप हैं- बाहरी शक्तियों के सामने तो हैं ही, उनके सामने भी जिनके सम्मुख आप यह भाषण दे रहे हैं. फिर भी, यह भंगिमा अपने लिए तो अच्छी ही है क्‍योंकि हम (उद्योगपति) जो भी कचरा फैलाएं आप उसे सहर्ष अपना ‘कन्विक्शन’ मानने और कहने को तैयार जो बैठे हैं! और हों भी क्यों नहीं? आखिर जहां आप आज हैं वह हमारी बदौलत ही न? और इस बात को आपने आज माना भी!

इसी सप्ताह तो लोगों को यह पता चला कि आपको कितना चन्दा मिला. और दूसरों को? चन्दे से पैदा हुई ऊर्जा संकल्‍प कहला सकती है, अलबत्ता यह नया प्रयोग है. संकल्‍प की संदर्भ प्रसंग सहित व्याख्या पार्टी को दिये चंदे से पैदा हुई ऊर्जा के लिए प्रयुक्‍त शब्द के रूप में भी की जा सकती है. ‘ऊर्जा’, ‘संकल्‍प’ और ‘चंदे’ पर अभी प्रतिबंध नहीं है इसलिए लोग चाहें तो इनका प्रयोग धड़ल्ले से कर सकते हैं.

इस लिहाज से मनमोहन सिंह- जिनके सिर पर आर्थिक सुधारों का श्रेयास्पद ठीकरा फोड़ा जाता है- उनका किया-धरा ‘मजबूरी’ में किया गया कृत्य था. यह बात वे जानते थे जिन्हें जानना चाहिए था, वे नहीं जानते थे जिन्हें नहीं जानना था. जो जानते थे वे मनमोहन सिंह को लानतें-मलामतें भेजते थे और जिन्हें ये बातें पता नहीं थीं वे इसी बात पर उन्‍हें कोस लिया करते थे कि ‘बोलते ही नहीं’! अब जो सब जानते हैं वे यह भी जानते हैं कि उनके यह बात जान लेने से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ना बल्कि अगर कह दी तो उनकी जान सांसत में आ जाने वाली है क्योंकि यहां जो कुछ भी नहीं जानता वह इसी बात से खुश है कि मोदी बोलते हैं.

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बेहतर होता यदि सीआइआइ के आयोजन में बैठे लोग यह पूछते (या वहां कुछ ऐसे लोगों को बैठने को मिलता जो कुछ पूछ सकते थे) कि जब सब कुछ खुला खेल फर्रूखाबादी ही था और है तो फिर देश की यह दुर्दशा भी क्‍या आपकी मनमर्जी से ही हो रही है? भाषण में कृषि सुधारों को अपनी बड़ी उपलब्धि बताते वक़्त ज़रूर ये लोग टोक देते कि हुज़ूर! क्‍या यह भी आपकी मर्ज़ी से हुआ है? हुआ ही है. तो आप क्या चाहते हैं कि किसान यूं ही आंदोलन के दौरान खेत होते जाएं? जिन्हें आप उपलब्धि बता रहे हैं, किसान उन्हें मौत का परवाना बता रहे हैं. क्या किसानों की मौत के परवाने आपकी मर्ज़ी से फाड़े गए हैं?

इस भारतवर्ष की सृष्टि में जब सब कुछ आपकी मर्ज़ी से ही हो रहा है तो क्या कोरोना की भेंट चढ़ गए लोग भी आपकी ही इच्छा थी? क्या ऑक्सीज़न के लिए तरसते और उसके लिए भटके लोगों के चित्र आपकी ही लीला थी? नोटबंदी से लेकर जीएसटी और फिर देशव्यापी लॉकडाउन में जो लोग अपनी अपनी देह से मुक्त हुए क्‍या वह भी आपकी कोई रचना थी? आपका ये ‘कन्विक्शन’ कितनी लाशों के बाद पूरा होगा, हुजूर?

बेहतर होता कि आप मजबूर होते. जनता का लिहाज करते. लोकतंत्र का सम्मान करते. गरीबों की आह और हाय का मतलब समझते. आप इतने संकल्पित क्यों हैं, प्रभु? संकल्‍प अच्छे हृदय के लोगों को शोभा देता है. मनमर्जी उसकी जायज़ है जिसके दिल में लोगों के लिए प्यार हो, जो ढाल बनकर खड़ा हो जाय अपने लोगों के लिए. आप अपनी इच्‍छा से अपने देश की ज़मीनें चीन को दे रहे हैं. आप मनमर्ज़ी से देश की तमाम संपदा अपने दोस्तों को दे रहे हैं. ऐसे मामलों में ‘कन्विक्शन’ अच्छी बात नहीं है.

और लोकतंत्र में किसी की मर्ज़ी कहां चलती है? ‘कंपल्‍शन’ इतनी भी बुरी बात नहीं है. यह इंसान को निरंकुश होने से बचाती है. एक आम नागरिक कई अपराध इसीलिए नहीं कर पाता क्योंकि उसके साथ उसका परिवार है. अपने परिवार की रक्षा, भरण-पोषण करना इन आम नागरिकों का ‘कंपल्‍शन’ है. अगर ये न हो, तो दुनिया अराजक हो जाए- जैसे आपके संकल्‍प से ये देश अराजक हुआ जा रहा है!

जंतर-मंतर पर खुलेआम ‘मुस्लिम विरोधी’ नारे लगवाना आपका ‘कंपल्‍शन’ हो सकता है क्योंकि जिस तरह देश का एक आम नागरिक अपने परिवार के लिए जवाबदेह है वैसे ही आप भी अपने परिवार (संघ) के लिए ठीक वही ‘कंपल्‍शन’ महसूस करते होंगे. इसलिए वह सब होने देते हैं जो एक अच्छे लोकतंत्र में कदापि नहीं होने देना चाहिए. लेकिन आपने तो फरमाया कि यह सब आपके ‘कन्विक्शन’ से हो रहा है! ऐसा ‘कन्विक्शन’ अच्छा नहीं है. अगर यहां लोकतंत्र का न्यूनतम ‘कंपल्‍शन’ आड़े आ गया तो आप वहां नहीं रहेंगे जहां आप हैं और आगे आप होने वाले हैं. बहरहाल…

सच तो ये है कि आप जितने ‘कंपल्‍शन’ में हैं उतना इस देश का कोई भी प्रधानमंत्री कभी नहीं रहा. आप पर अपने उद्योगपति मित्रों का जितना कर्ज़ चढ़ा है उसे चुकाना हर वक़्त ‘कन्विक्शन’ नहीं होता. वह ‘कंपल्‍शन’ की श्रेणी में आता है. इसके बावजूद कुछ बातें आपने एकदम दुरुस्त फरमायी हैं. आज के भाषण में शेख़ी नहीं हक़ीक़त थी, लेकिन आपने उसे कहा उतना ही जितना वहां बैठे धनकुबेर सुनना चाहते थे. जहां-जहां आपने ‘कन्विक्शन’ कहकर शेख़ी बघारने की कोशिश की, वहीं-वहीं आप उनके सामने अपनी पोल खोल बैठे. जब आपने कहा कि आप मजबूर नहीं हैं तो लोगों ने सुना कि आप मजबूत नहीं हैं. जब आपने कहा कि हमने तमाम सुधार कर दिये ताकि विदेशी निवेश आये तब लोगों ने सुना कि महज प्रक्रियागत सुधारों से निवेश नहीं आता क्‍योंकि इसके लिए एक सामाजिक स्वीकृति की ज़रूरत होती है जो आप न हासिल कर पाये हैं और न कर पाएंगे.

वहां बैठे लोगों के पास भी आप वाले दोनों बीज शब्द थे. वे ‘कन्विक्शन’ में भी थे और ‘कंपल्‍शन’ में भी- मुनाफा बनाने का ‘कन्विक्शन’ और मुनाफा बढ़ाते रहने का ‘कंपल्‍शन’. इज्ज़त की परवाह उन्हें पहले के पूँजीपतियों की तरह कभी रही ही नहीं, हालांकि उन्हें भी देर-सबेर इस बात पर सोचना पड़ेगा कि महज़ मुनाफा सब कुछ नहीं होता. जो इज्ज़त इस देश में पुराने पूंजीपति घरानों की है वह इन व्यवसायियों को कभी क्यों नहीं नसीब हो पायी? इसलिए क्योंकि ये मुनाफे के प्रति संकल्पित हैं; क्योंकि गलत को गलत ढंग से सही समझने के पीछे इनका ‘कंपल्‍शन’ काम करता है. पुराने घराने और पुरानी सरकारें इस लिहाज से एक दूसरे से परस्‍पर सहमत रहती थीं कि ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिए जिससे समाज में स्वीकृति या उसकी शुभकामनाएं कम हों.

जब इन बातों की परवाह खत्म हो जाय तो मनमर्जी एक ढाल का काम भी कर सकती है, लेकिन कब तक? केवल तभी तक जब आप तक देश के लोकतंत्र में अपनी मनमर्जी चलाएं जबकि अपने संघ परिवार और हमप्रांत व्यवसायियों के जबर्दस्त ‘कंपल्शन’ में रहें. बाकी आप और आपकी माया और और माया से अभिभूत आपके जमूरे जब तक जिंदा हैं, अमृत महोत्सव चालू आहे…

(साभार - जनपथ)

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