जो जातियां पीछे छूट गयी हैं, उन्हें आगे लाने के लिए नये किस्म के आयोग गठित करने होंगे.
क्या इससे जातिवाद बढ़ेगा?
नहीं. इससे जातिवाद नहीं बढ़ेगा. शुरू-शुरू में संघर्ष बढ़ेगा. ऐसा देखा जा सकता है कि बहुत सी जातियां यह खुले तौर पर आरोप लगाएं कि हमें उपेक्षित किया गया है और वे इस जनगणना के बिना भी लगाती हैं, लेकिन कुछ समय बाद इन जातियों से नये सामुदायिक नेता निकलेंगे जो तीन काम करेंगे:
i. खुद समुदाय के भीतर रहकर उसे आगे ले जाने का काम.
ii. मुख्यधारा की राजनीतिक पार्टियों में हिस्सेदारी की मांग.
iii. कई जातियों का एक संघ बनाकार स्वतंत्र राजनीतिक पार्टियों की स्थापना.
इससे सबसे पहले तो सभी राजनीतिक दलों को अपना लोकतांत्रीकरण करने को मजबूर होना होगा. इसके बाद सरकार को नयी श्रेणियों की रचना करनी पड़ सकती है. अनुसूचित जाति/अन्य पिछड़ा वर्ग/घुमंतू-विमुक्त में शामिल कई जातियां इधर से उधर हो सकती हैं.
जाति आधारित जनगणना से भारतीय समाज के नये कोने-अंतरे सामने आने लगेंगे. इससे उपजी सच्चाइयों का सामना करने में देश को समय लगेगा.
जो जातियां पीछे छूट गयी हैं, उन्हें आगे लाने के लिए नये किस्म के आयोग गठित करने होंगे. इन आयोगों को उस तरह काम नहीं करना होगा जैसा काम रेनके और इदाते कमीशन ने किया है बल्कि इसे मंडल कमीशन से ज्यादा मेहनत करनी होगी. इस आयोग में न्यायाधीश, समाजविज्ञानी, सामुदायिक नेता हों. खुली और पारदर्शी जन सुनवाइयां हों, तब काम बनेगा.
तो कुछ भी आसान नहीं है.
लेखक इतिहासकार हैं और घुमंतू जातियों पर इनकी विशेषज्ञता है. यह टिप्पणी उनकी फ़ेसबुक से ली गई है.
(साभर- जनपथ)