“यह भारत के सभी विश्वविद्यालयों के लिए खतरनाक है”

क्या इसे विडंबना मान कर केवल आंसू बहाया जाए कि जिस ‘सागर विश्वविद्यालय’ के संस्थापक कुलपति ने यह कहा था कि “मेरे मरने पर भी विश्वविद्यालय में छुट्टी न हो”

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यह सही है कि प्रो. अपूर्वानंद से 3 अगस्त 2020 को उक्त दिल्ली दंगे के बारे में पूछताछ की गई थी. पर इस से यह साबित नहीं होता कि उन की संलिप्तता इस में थी ही. इसी तरह गौहर रज़ा के बारे में यह बिलकुल ही ग़लत तथ्य है कि उन्होंने अफजल गुरु के प्रेम में कविता लिखी है. अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद जिस के ‘लोगो’ में जिस ‘ज्ञान, शील, एकता’ का उल्लेख है उसी का तकाजा है कि तथ्य की जाँच कर के ही उस के बारे में कुछ लिखा या बोला जाए. जहां तक अफजल गुरु के मुकदमे की बात है तो सर्वोच न्यायालय के फ़ैसले का सम्मान करते हुए भी कोई इस से विनम्रतापूर्वक असहमत हो सकता है. ऐसा नहीं होता तो दिल्ली विश्वविद्यालय के दर्शनशास्त्र के प्रोफेसर निर्मलांशु मुखर्जी ने फैसला आने से पहले इस से संबंधित किताब नहीं लिखी होती. अकादमिक परिसर का काम अखंड सहमति में लिपटी हुई जी-हुजूरी का निर्माण करना नहीं है.

जैसा कि ऊपर कहा गया कि अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद ने कुलपति और स्थानीय पुलिस अधीक्षक को ज्ञापन दिया कि प्रो. अपूर्वानंद और गौहर रज़ा यदि इस ‘वेबिनार’ में शामिल होते हैं तो आंदोलन किया जाएगा, इन वक्ताओं के साथ साथ कुलपति, कुलसचिव और मानव विज्ञान विभाग के अध्यक्ष के ख़िलाफ़ प्राथमिकी भी दर्ज़ कराई जाएगी. इतना ही नहीं विश्वविद्यालय को अनिश्चितकालीन बंद करने के लिए भी आंदोलन किया जाएगा. यह अत्यंत तकलीफ़देह है कि अपने आप को विद्यार्थियों की ‘परिषद’ कहने वाला एक संगठन सीधे-सीधे विश्वविद्यालय के रोजमर्रा के क्रियाकलापों में न केवल दखलंदाजी कर रहा है बल्कि सीधे-सीधे धमकी भी दे रहा है. फिर वही बात कही जा सकती है कि ऐसे आचरण में कहां ‘शील’ है और यह ‘ज्ञान’ विरोधी क्रिया तो है ही.

पर इन सब से भी आश्चर्यजनक एवं दुखद यह है कि ज्ञापन पा कर पुलिस अधीक्षक ने 29 जुलाई 2021 को कुलपति को एक पत्र लिख कर चेतावनी दी कि वक्ताओं के विचारों से यदि कोई आहत होता है तो और आक्रोश प्रकट करने की स्थिति में आता है तो आयोजक सामूहिक रूप से भारतीय दंड संहिता की धारा 505 के तहत दंडनीय अपराध के भागी होंगे. एक दौर भारतीय विश्वविद्यालयों का था (‘था’ क्रिया भी कितनी तकलीफ़देह है!) जब पुलिस बिना अनुमति के परिसर में प्रवेश ही नहीं कर सकती थी. पर आज पुलिस सीधे-सीधे विश्वविद्यालय को कड़ी चेतावनी दे रही है. सब से पहली बात तो यही है कि इस तरह के मसले पर पुलिस को सीधे कुलपति को पत्र लिखने की न तो कोई ज़रूरत है और न ही अधिकार. एक ‘वेबिनार’ का आयोजन कोई सांप्रदायिक हिंसा तो है नहीं जिस के डर के कारण सावधानी बरती जाए.

भारत का संविधान प्रत्येक नागरिक को यह अधिकार देता है कि वह शांतिपूर्ण वातावरण में अहिंसक तरीक़े से अपनी अभिव्यक्ति कर सकता है. इस दृष्टि से पुलिस अधीक्षक का पत्र संवैधानिक अधिकारों को सीमित कर रहा है. पुलिस अधीक्षक का यह पत्र बताता है कि जिस पुलिस का कोई भी कदम जांच पर आधारित होना चाहिए उस ने अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद द्वारा दिए गए ज्ञापन को ही सच एवं आधार मान लिया. इस पत्र में एक बात और यह लिखी गई है कि ‘वेबिनार’ में चर्चा की जानेवाली विषय-वस्तु और अभिव्यक्त होने वाले विचारों के बारे में पहले से ही सहमति बना ली जाए जिस से किसी धर्म, जाति, क्षेत्र, समुदाय, व्यक्ति की भावना आहत न हो.

जब यही करना हो तो फिर ऐसे आयोजन की ज़रूरत क्या है? संगोष्ठी आदि का आयोजन इसीलिए होता ही है कि अनेक तरह के विचार वाले एक विषय पर खुल कर बात कर पाएं और फिर किसी साझा विचार तक पहुंच पाएं. आहत भावनाओं की राजनीति पिछले कई वर्षों से राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी से जुड़े संगठन करते रहे हैं. पुलिस ने अपनी भूमिका का यथोचित निर्वाह न करते हुए जिस भाषा में कुलपति को पत्र लिख रही है उस से स्पष्ट है कि पुलिस भी इसी संकीर्ण राजनीति के साथ खड़ी हो गई.

दूसरी बात यह भी है कि आहत भावनाओं की आशंका में यदि पुलिस भी काम करे तो फिर तार्किक और वैज्ञानिक प्रवृत्ति से संपन्न भारत का निर्माण कैसे हो सकता है जो हमारी संवैधानिक प्राथमिकता है. पुलिस का काम यह होना चाहिए था कि वह अखिल विद्यार्थी परिषद के लोगों को समझाती कि विश्वविद्यालय का काम ही तर्क, संवाद और बहस है. अगर आप को वक्ताओं के विचारों से असहमति है तो आप भी उसी ‘वेबिनार’ में खुल कर अपना पक्ष शालीनता से रख सकते हैं. निश्चय ही पुलिस ने ऐसा नहीं किया. वह भी अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद की तरह धमकी की भाषा ही बोलने लगी. यह दुखद है कि पुलिस जैसी एक संवैधानिक संस्था ने एक असंवैधानिक रास्ता अपने लिए चुन लिया.

विश्वविद्यालय प्रशासन को भी यह दृढ़ता से कहना चाहिए था कि यह एक अकादमिक आयोजन है इसलिए इस में सभी को अपनी बात रखने का हक़ है. पर इस का उलटा हुआ. कुलपति को लिखे गए पत्र के बाद विश्वविद्यालय प्रशासन सक्रिय हुआ और मानव विज्ञान विभाग को यह निर्देश दिया गया कि 15 जनवरी 2021 को भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय द्वारा ऑनलाइन अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी या वेबिनार आदि के आयोजन के लिए ज़ारी निर्देशिकाओं के अनुसार शिक्षा मंत्रालय द्वारा पूर्व अनुमति आवश्यक है, इसलिए यदि ऐसी अनुमति नहीं मिली है तो इसे स्थगित कर दिया जाए. अंततः ‘वेबिनार’ शुरू होने के लगभग दो घंटे पहले मानव विज्ञान विभाग अपने को इस के आयोजन से अलग करने पर बाध्य हुआ.

क्या इसे विडंबना मान कर केवल आंसू बहाया जाए कि जिस ‘सागर विश्वविद्यालय’ के संस्थापक कुलपति ने यह कहा था कि “मेरे मरने पर भी विश्वविद्यालय में छुट्टी न हो” उसी विश्वविद्यालय में यह नौबत आ गई है कि एक ‘वेबिनार’ यानी अकादमिक काम को स्थगित करने और विश्वविद्यालय को अनिश्चितकालीन बंद करने की खुलेआम धमकी दी जा रही है? अकादमिक परिसर एक खुली बातचीत की जगह होते हैं. वहां विचारों में तो जबरदस्त असहमति हो सकती है पर अकादमिक ईमानदारी को कुचला नहीं जा सकता. यह न तो भारतीय ज्ञान – संस्कृति है और न ही संवैधानिक अधिकार. अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद संगठन ने यही करने की कोशिश की और उस में सफल भी हुआ. जिस भारतीय संस्कृति की महानता के गुण गाते राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और भारतीय जनता पार्टी थकते नहीं है उसी की ज्ञान परंपरा में यह निहित है कि कोई भी आचार्य अपने विरोधी के मत को आदरपूर्वक स्थान देता है जिसे शास्त्रीय भाषा में ‘पूर्व पक्ष’ कहा जाता है और फिर खंडन करते हुए अपना मत प्रकट करता है जिसे ‘उत्तर पक्ष’ कहा जाता है.

ज़ाहिर है कि इस प्रक्रिया में दूसरे को सुनना महत्त्वपूर्ण है. चूंकि अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद को वर्तमान शासक दल का समर्थन प्राप्त है इसलिए उस की एक जिला इकाई के ज्ञापन ने विश्वविद्यालय के काम करने को न केवल बाधित किया बल्कि इसे अपने हिसाब से समायोजित करने में सफलता पाई. इसी का परिणाम हुआ कि पुलिस अधीक्षक कुलपति को निर्देश दे दिया. यह सब भारत के विश्वविद्यालयों के लिए बहुत ही खतरनाक है. हमें इस का प्रतिरोध करना ही होगा क्योंकि और चुप बैठना मृत्यु का लक्षण है.

(लेखक- योगेश प्रताप शेखर, सहायक प्राध्यापक (हिंदी), दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय)

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