200 से ज्यादा सालों तक हमारे ऊपर बलपूर्वक शासन करने वाले अंग्रेज खोज कर भी इतने देशद्रोही नहीं खोज पाए थे, जितने हमने महज सात सालों में उससे ज्यादा देशद्रोही पैदा कर दिए.
आपातकाल का पूरा काल न्यायपालिका के लिए कालिमामय है. 1976 के हैबियस कॉरपस मामले में जिस तरह अदालत ने पलक झपकाए बिना यह फैसला दिया कि राज्य नागिरकों के जीने के अिधकार पर भी हाथ डाल सकता है, वह तो संविधान का अपमान ही नहीं था, वैधानिक कायरता का चरम था. नागरिक अधिकारों का गला घोंटने वाला 'एनएसए' जैसा भयंकर कानून 1977 में मिली दूसरी आजादी के तुरंत बाद ही, 1980 में पारित हुआ. 1994 में सत्ता एक कदम और आगे बढ़ी और हमारी झोली में 'टाडा' आया. 1996 में उसने एक कदम और आगे बढ़ाया और 'आर्म्ड फोर्सेज' स्पेशल पावर बना. 2004 में फिर एक कदम आगे 'पोटा' आया. इसने वह रास्ता साफ किया जिस पर चल कर ऊपा या यूएपीए नागिरकों की गर्दन तक पहुंचा. ये सारे कानून सत्ता के कायर चरित्र व न्यायपालिका के शुतुरमुर्ग बन जाने की शर्मनाक कहानी कहते हैं.
गांधीजी ने न्यायपालिका के चरित्र को रेखांकित करते हुए कहा था कि जब भी राज्य के अनाचार से सीधे मुकाबले की घड़ी आएगी, न्यायपालिका यथास्थिति की ताकतों के साथ खड़ी मिलेगी. तब हमने अपने भोलेपन में समझा था कि गांधीजी विदेशी न्यायपालिका के बारे में कह रहे हैं जबकि वे देशी-विदेशी नहीं, सत्ता व सत्ता की कृपादृष्टि की याचक सभी संरचनाओं के बारे में कह रहे थे. राष्ट्रद्रोह और राजद्रोह में गहरा और बुनियादी फर्क है. महात्मा गांधी ने खुली घोषणा कर रखी थी कि वे राज के कट्टर दुश्मन हैं क्योंकि वे राष्ट्र को दम तोड़ती कायर भीड़ में बदलते नहीं देख सकते.
सत्ता को सबसे अधिक डर असहमित से लगता है क्योंकि वह सत्ता को मनमाना करने का लाइसेंस समझती है. इसलिए असहमित उसके लिए बगावत की पहली घोषणा बन जाती है. विडंबना देखिए कि लोकतंत्र असहमित के ऑक्सीजन पर ही जिंदा रहता है, सता के लिए असहमति कार्बन गैस बन जाती है. दुखद यह है कि ये सारे कानून न्यायपालिका की सहमित से ही बने व टिके हैं.
124 ए से हाथ धो लेने की चीफ जस्टिस रमण की बात के जवाब में एटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल अदालत में ठीक वही कह रहे हैं जो सता व नायपालिका ने अब तक नागरिक अधिकारों के पांव काटने वाले हर कानून को जन्म देते वक्त कहा है: सावधानी से इस्तेमाल करें! यह कुछ वैसा ही जैसे बच्चे के हाथ में खुला चाकू दे दें हम लेकिन उस पर एक पर्ची लगा दे कि सावधानी से चलाएं. अबोध बच्चा उससे अपनी गर्दन काट ले सकता है; काइयां सत्ता उससे अपनी छोड़, हमेशा ही असहमत नागिरक की गर्दन काटती है. यह इितहास सिद्ध भौगोलिक सचाई है. फिर न्यायपालिका इतनी अबोध कैसे हो सकती है कि सता के हाथ में बड़े-से-बड़ा चाकू थमाने की स्वीकृति देती जाए?
जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ कहते हैं, "जब भी, जहां भी बहुमतवादी मानिसकता सर उठाती नजर आए, तभी और वहीं उससे रू-ब-रू होना चाहिए. ऐसा न करना हमारे पुरुखों ने भारत को जिस संवैधानिक गणतंत के रूप में स्वीकार किया था, उस पवित्र अवधारणा से छल होगा.”
जिसके हाथ में संविधानप्रतत्त शक्ति है, उस न्यायपालिका के लिए चुनावी बहुमत और संवैधानिक बहुमत का फर्क करना और उसे अदालती फैसले में दर्ज करना आसान है क्योंकि संविधान की संप्रभु जनता ऐसे हर प्रयास में उसके साथ व उसके पीछे खड़ी रहेगी. हम सब जानते हैं कि खड़ा तो अपने पांव पर ही होना होता है, फिर परछाईं भी आपको सहारा देने आ जाती है.
लेखक गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष हैं.
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