पंजाब के मोगा के एक ईट-भट्टे से छुड़ाए गए 71 बंधुआ मज़दूर. मज़दूरों का दावा है कि उन्हें सरकार द्वारा तय की गई मज़दूरी भी नहीं मिलती है.
इतना ही नहीं आगे भी नियमों की धज्जियां उड़ाई गईं. दलसिंगार बताते हैं, ‘‘जब मज़दूरों ने शिकायत कर दी तो नियमतः उन्हें रेस्क्यू करना होता है, लेकिन ऐसा नहीं हुआ. मज़दूर जहां थे वहीं रहें. फिर मैं वहां पहुंचा और अधिकारियों से बात की. फिर टालमटोल करने लगे. एक रोज एसडीएम का फोन आया कि हम देख रहे हैं. आपको आने की ज़रूरत नहीं है. नहीं आने के लिए दो तीन दफा फोन आया. मुझे लगा कुछ तो गड़बड़ है. मैं अधिकारियों से नहीं आने की बात बोलकर थोड़ी देर बाद पहुंच गया. वहां देखा कि मज़दूरों को पैसे बांटे जा रहे थे. 578 रुपए के हिसाब से ही पैस दिया गया. हमने पूछा कि सरकारी रेट से इन्हें हिसाब नहीं मिल रहा. लेकिन कोई खास जवाब नहीं आया उनका. मज़दूर भी काफी परेशान थे तो हमने सोचा कि इन्हें जाने दिया जाए. वे मज़दूरों को आने जाने का किराया नहीं दे रहे थे. तो हमने जबरदस्ती करके किराया और खाने पीने का दिलवाया. अब हम इस मामले को लेकर एनएचआरसी में गए है.’’
मज़दूर भी अधिकारियों पर अनदेखी का आरोप लगाते हैं
न्यूज़लॉन्ड्री ने मोगा के लेबर इंस्पेक्टर करण गोयल से संपर्क किया तो उन्होंने इस मामले की जानकारी नहीं होने की बात की. गोयल कहते हैं, ‘‘मुझे इसकी जानकारी नहीं है. दरअसल मुझसे पहले जो इंस्पेक्टर मैडम (इंदरप्रीत कौर) थीं उन्होंने इस मामले को देखा था.’’
न्यूज़लॉन्ड्री ने तत्कालीन लेबर इंस्पेक्टर इंदरप्रीत कौर से भी बात करने की कोशिश की लेकिन उन्होंने फोन नहीं उठाया. हमने मोगा के जिलाधिकारी से भी बात करने की कोशिश की लेकिन इनसे भी बात नहीं हो पाई.
मोगा के एसडीएम राजपाल सिंह, मज़दूरों और मालिकों के बीच हुए समझौते में मौजूद रहे, लेकिन उन्हें नहीं मालूम की मज़दूरों को किस दर से मेहनताना मिला. न्यूज़लॉन्ड्री से बात करते हुए सिंह कहते हैं, ‘‘मज़दूरों ने लिखित में दिया कि वे बंधुआ मज़दूर नहीं हैं. उनकी मांग थी कि सरकार द्वारा तय मेहनताना उन्हें मिले. जबकि यहां के मालिक मिट्टी तैयार करने का मशीन लाए हैं. इन्होंने आपस में ही तय किया है कि मज़दूरी में से 175 रुपए काटेंगे. मज़दूर ये पैसे कटवाना नहीं चाह रहे थे.’’
फिर मज़दूरों को किस हिसाब से पैसे मिले? इस सवाल के जवाब में सिंह कहते हैं, ‘‘मुझे नहीं पता. मैं उस वक़्त वहां नहीं था. वैसे मालिक का काफी ज़्यादा खर्च हो गया. करीब 50 हज़ार का ट्रक करके मज़दूरों को भेजा और खाने के लिए भी पैसे हमने दिलवाये. जहां तक रही बिजली और पानी नहीं देने की बात तो यह सही नहीं है. जब हम वहां गए तो देखा कि मज़दूर समोसे खा रहे थे. मालिक ने हमें बताया कि इन्हें कोई परेशानी नहीं हुई. मज़दूरों ने भी ऐसा ही कहा. मज़दूरों की नाराजगी सिर्फ पैसों को लेकर थी. उन्हें पैसे मिल गए और वे ख़ुशी-ख़ुशी घर चले गए.’’
अधिकारी कह रहे हैं कि मज़दूर खुशी-खुशी घर चले गए लेकिन जब हमारी बात कमलेश से हुई तब वे अपने गांव के तालाब से मछली पकड़कर वापस लौटे थे. वे कहते हैं, ‘‘पिछले छह-सात साल से मैं भट्टे पर काम कर रहा हूं. बारिश खत्म होने के बाद फिर जाना पड़ेगा क्योंकि यहां काम नहीं है. अपने जिले में काम मिल जाए तो कोई बाहर क्यों जाए.’’
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