प्रेस इनफॉर्मेशन ब्यूरो का कहना है, "दिसंबर 2019 में आरटीआई के जवाब में दिए गए आंकड़े और फरवरी 2021 में संसद में पेश किए गए आंकड़े दोनों सही हैं."
न्यूजलॉन्ड्री की रिपोर्ट ने इस बात पर जोर दिया था कि साल 2017-18 के लिए डीएवीपी के द्वारा विज्ञापन पर खर्च के लिए तैयार किए गए दो डेटासेट, मेल नहीं खाते.
उदाहरण के तौर पर, संसद में पेश किए गए आंकड़ों के अनुसार साल 2017-18 में आज तक को 3.7 करोड़ रुपए के विज्ञापन मिले. लेकिन आरटीआई के आंकड़ों के अनुसार यह रकम गिरकर 2.4 करोड़ रुपए हो गई. इसके विपरीत, संसद के आंकड़ों के अनुसार 2017-18 में हिंदी चैनल एनडीटीवी इंडिया को 1.5 लाख रुपए के विज्ञापन मिले. लेकिन उसी साल के लिए आरटीआई के आंकड़ों में यह रकम बढ़कर 1.16 करोड़ रुपए हो जाती है.
सूचना व प्रसारण मंत्रालय के एक कर्मचारी ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि जहां संसद के आंकड़े समाचार चैनलों को प्रस्तावित विज्ञापनों का विवरण है, वहीं आरटीआई के आंकड़े केंद्र सरकार का वास्तविक खर्च बताते हैं.
यह प्रत्युत्तर हालांकि यह स्पष्ट करता है कि विज्ञापनों पर हुआ खर्च प्रस्तावित खर्चे से कम कैसे हो सकता है, लेकिन यह स्पष्ट नहीं करता कि वास्तविक खर्च प्रस्तावित खर्च से ज्यादा कैसे हो सकता है, जैसा कि एनडीटीवी इंडिया और सीएनएन न्यूज़18 के मामले में हुआ. मंत्रालय के कर्मचारी ने इसके लिए समाचार चैनलों को जिम्मेदार ठहराया.
उन्होंने कहा, "अगर किसी चैनल को किसी वर्ष में सरकार की ओर से कोई विज्ञापन प्रस्तावित नहीं किए गए, तब भी उस साल उन्हें सरकार से विज्ञापन का पैसा मिला. तब हो सकता है कि उक्त चैनल ने पिछले सालों में चलाए गए विज्ञापनों के पुराने बिल पेश किए हों."
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