क्या वाकई बड़े लोगों की जिंदगी के सामान का हिसाब-किताब रखने वाले अब नहीं बचे या अखबारों की दिलचस्पी उसमें नहीं रही?
और खिंच गए पाले...
किसी की मौत पर किसी से देर शाम तक एक अच्छा लेख मंगवा लेना किसी भी अखबार में कोई ज्यादा मुश्किल काम नहीं होता. सवाल हालांकि विषय की अहमियत को समझने वाले प्राणी का है, जबकि अहमियत इसलिए खत्म हो चुकी है क्योंकि हिंदी पट्टी के अखबारों ने कला, संस्कृति, रंगमंच, कविता, सिनेमा आदि की बीट कब की खत्म कर दी है. इसी दिल्ली में जनसत्ता के राकेश तिवारी शायद आखिरी संवाददाता थे जो बाकायदे कला-संस्कृति की बीट पर रिपोर्ट करते थे. वो भी इसलिए ऐसा कर सके क्योंकि तब के कार्यकारी संपादक ओम थानवी साहित्यानुरागी हैं. उनके बाद इस पद पर आए मुकेश भारद्वाज का हिसाब-किताब कुछ समझ में नहीं आता, हालांकि रविवार 10 जुलाई को फादर स्टैन स्वामी पर केंद्रित उनका ‘बेबाक बोल’ स्तंभ (मुलजिम के मुजरिम) इस बात का क्षणिक भरोसा बेशक दिलाता है कि अभी सारे संपादक पशुवत नहीं हुए हैं.
रविवार, 10 जुलाई के बाकी अखबारों को भी देखिए. समझ में आएगा कि स्टैन स्वामी की हफ्ते भर पहले हुई मौत तो दूर, केवल तीन दिन पहले हुई दिलीप कुमार की मौत को भी तब तक सब ने भुला दिया था. इसका मतलब तो यही निकलता है कि मामला मंशा का है, वरना स्पेस और वक्त की कमी नहीं है और संजीदा लिखने वाले भी दो-चार हैं ही. विडम्बना यह है कि 10 जुलाई और उसके बाद तक दिलीप कुमार के सम्बंध में उलटी-सीधी खबरें बेशक छपती रहीं इन अखबारों में और अब भी छप रही हैं, लेकिन किसी की दिलचस्पी तात्कालिक और तकरीबन अनावश्यक सूचनाओं से आगे नहीं दिखती है. कुछ शीर्षक देखें:
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क्या दिलीप कुमार होने का अर्थ केवल धन-दौलत है? राजकीय सम्मान है? अंत्येष्टि में शामिल हुए चेहरे हैं? उनके दिए बयान हैं? हिंदी के अखबारों के लिए ऐसा ही था, लेकिन 7 जुलाई और उसके बाद लगातार कुछ संजीदा लोगों ने सोशल मीडिया पर और अंग्रेज़ी के डिजिटल मीडिया में जवाहरलाल नेहरू के साथ जोड़कर उनकी शख्सियत को देखने की भी कोशिश की. इस विमर्श के केंद्र में रही मेघनाद देसाई की लिखी पुस्तक ‘नेहरूज़ हीरो’. सोशल मीडिया पर सरकारी प्रचारकों की ओर से जैसा साम्प्रदायिक माहौल बनाया गया था उस लिहाज से यह ज़रूरी तो था, लेकिन दिलीप साहब को याद करने का इकलौता सबब नहीं हो सकता था. यह पर्याप्त नहीं था. बौद्धिक भ्रष्टाचार और राजनीतिक बाध्यताएं हर मौत को जिस तरह निगल जाती हैं, वैसा ही दिलीप कुमार के साथ भी हुआ. एक ओर यूसुफ़ खान ट्रेंड करता रहा, दूसरी ओर उन्हें नेहरू बताया जाता रहा. पाले खिंच गए. सरहद के आर-पार उनका जुटाया सौ बरस का सामान इन्हीं दो पालों में खप गया. हमारे पत्रकारों को पाले बहुत पसंद हैं. उनका तो दिन बन गया.
जमीन जोतने वाले की, अखबार किसका?
बिलकुल ऐसा ही हुआ था दिलीप साहब की मौत से चार दिन पहले फादर स्टैन स्वामी के निधन पर. 84 साल का एक जीवन अखबारों ने ‘’यलगार के आरोपी’’ के रूप में निपटा दिया (ध्यान रहे, हिंदी के अखबारों को आज तक समझ नहीं आया कि अंग्रेज़ी के Elgar को हिंदी में क्या लिखा जाय). कहीं कोने में जगह मिली उनकी मौत को- एलगर/एलगार/एल्गर परिषद के देशद्रोही आरोपी के रूप में. अंग्रेज़ी के अखबारों और हिंदी के अखबारों की तुलना करें तो जो तस्वीरें सामने आती हैं उन्हें नीचे देख सकते हैं. हिंदी के आलोचक वीरेंद्र यादव और पत्रकार जितेन्द्र कुमार की मौजूं पोस्ट भी इस संदर्भ में पढ़ी जा सकती हैं.
जाहिर है, दिलीप कुमार में अखबारों की दिलचस्पी स्टैन स्वामी से ज्यादा है इसीलिए स्टैन स्वामी अब खबरों में नहीं हैं. दिलीप साहब बेशक खबरों में बने हुए हैं लेकिन उसमें वह शख्स खुद कितना मौजूद है जिसने अपनी धरती को जोतने के लिए दूसरी धरती पर जाने से इनकार कर दिया, यह एक बड़ा सवाल है. पिछले साल नवम्बर में बांग्ला अभिनेता सौमित्र चटर्जी के निधन पर लिखे अपने कॉलम में वरिष्ठ पत्रकार जावेद नक़वी ने चटर्जी और दिलीप साहब के बीच एक समानता बतलायी थी कि दोनों ही अपनी भाषा की फिल्म को अपनी धरती मानते थे और खुद को उसे जोतने वाला किसान. औपनिवेशिक गुलामी के खिलाफ जंग में विकसित और वहीं से निकले इस भारतीय राष्ट्रवाद को आज की तारीख में कितने अखबार समझते होंगे?
जिन अखबारों ने खड़े-खड़े किसानों को ही देशद्रोही ठहरा दिया हो, उनसे हम दिलीप कुमार के संदर्भ में किसानी के मुहावरे को समझ लेने की अपेक्षा भी कैसे कर सकते हैं? फिर, आदिवासियों का मामला तो अखबारों के लिए बहुत दूर की कौड़ी है, जिनके अधिकारों के वाहक फादर स्टैन स्वामी थे. यह संयोग नहीं है कि हिंदी साहित्य के अच्छे मंचों में गिने जाने वाले ‘सदानीरा’ ने फादर स्टैन स्वामी के नाम से ब्राजील के फादर कमारा का उद्धरण चिपका दिया. फिर ध्यान दिलाने पर हटाया.
गौर से देखा जाय तो कितनी अजीब बात है कि दिलीप कुमार और स्टैन स्वामी की मौत एक ही जगह मुंबई में हुई. लगभग आसपास हुई. एक को किसी परिचय की जरूरत नहीं थी जबकि दूसरे से इस समाज का पहला सार्वजनिक परिचय ही उनकी मौत के वक्त हुआ. फिर भी दोनों को लेकर हिंदी पट्टी के अखबारों का रवैया कमोबेश एक सा रहा. किसी ने इनकी जिंदगी के संचित अनुभवों, स्मृतियों, घटनाओं, जीवन-प्रक्रिया, दर्शन में घुसने और उसे समझ के रिपोर्ट करने की ज़हमत नहीं उठायी. ‘सौ बरस के सामान’ का बोझ तो खैर क्या ही उठाता कोई! हैरत होती है बड़ी मौतों को अपनी आंखों के सामने इतना छोटा बनता देख और अफ़सोस कि कोई कुछ कर भी नहीं सकता. हैरत इलाहाबादी के ही शब्दों में:
“ख़िदमत में तिरी नज़्र को क्या लाएं ब-जुज़ दिल / हम रिंद तो कौड़ी नहीं रखते हैं कफ़न को”