84 साल का एक थरथराता-कांपता बूढ़ा न्यायपालिका के दरवाजे पर खड़ा होकर इतना ही तो मांग रहा था कि उसे अपने घर में, अपने लोगों के बीच मरने की इजाजत दे दी जाए.
हमारा संविधान कहता है कि संसद कानून बनाने वाली एकमात्र संस्था है लेकिन वही संविधान यह भी कहता है कि कोई भी कानून संविधान सम्मत है या नहीं यह कहने वाली एकमात्र संस्था न्यायपालिका है. आतंक व जुर्म की ताकत से राज करने वाले कानून संसद बना सकती है लेकिन उसे न्यायपालिका असंवैधानिक घोषित कर निरस्त कर सकती है. फिर यूएपीए जैसे कानून कैसे बन गए और न्यायपालिका ने उसे पचा भी लिया जो इसी अवधारणा पर चलती हैं कि इसे न्यायपालिका न जांच सकती है, न निरस्त कर सकती है?
जो न्यायपालिका को अपना संवैधानिक दायित्व पूरा करने में असमर्थ बना दे ऐसा कानून संविधानसम्मत कैसे हो सकता है? भीमा कोरेगांव मामले में जिन्हें पकड़ा गया है, उन सब पर मुकदमा चले और उन्हें कानूनसम्मत सजा हो, इस पर किसी को एतराज कैसे हो सकता है? लेकिन बिना मुकदमे के उनको जेलों में रखा जाए और हमारी न्यायपालिका वर्षों चुप रहे यह किस तर्क से समझा जाए? फिर तो हमें कहना पड़ेगा कि संविधान के रक्षक संविधान पढ़ने की पाठशाला में गए ही नहीं.
हजारों-हजार लोग ऐसे हैं जो जेलों की सलाखों में बिना अपराध व मुकदमे के बंद रखे गए हैं. जेलें अपराधियों के लिए बनाई गई थीं, न कि राजनीतिक विरोधियों व असहमत लोगों का गला घोंटने के लिए. जेलों का गलत इस्तेमाल न हो, यह देखना भी न्यायपालिका का ही काम है. जिस देश की जेलों में जितने ज्यादा लोग बंद होंगे, वह सरकार व वह न्यायपालिका उतनी ही विफल मानी जाएगी. और सरकारी एजेंसियां लंबे समय तक लोगों को जेल में सड़ा कर रखती हैं, जिंदा लाश बना देती हैं और फिर कहीं अदालत कहती है कि कोई भी पक्का सबूत पेश नहीं किया गया इसलिए इन्हें रिहा किया जाता है.
यह अपराध किसका है? उनका तो नहीं ही जो रिहा हुए हैं. तो आपकी न्यायपालिका इस अपराध की सजा इन एजेंसियों को और इनके आकाओं को क्यों नहीं देती? नागरिकों के प्रति यह संवैधानिक जिम्मेवारी न्यायपालिका की है या नहीं? दिल्ली उच्च न्यायालय ने अभी-अभी कहा है कि सरकार अदालत में झूठ बोलती है. अदालत में खड़े होकर सरकार झूठ बोले तो यह दो संवैधानिक व्यवस्थाओं का एक साथ अपमान है, उसके साथ धोखाधड़ी है. इसकी सजा क्या है? बस इतना कि कह देना कि आप झूठ बोलते हैं? फिर झूठी गवाही, झूठा मुकदमा सबकी छूट होनी चाहिए न? ऐसी आपाधापी ही यदि लोकतंत्र की किस्मत में बदी है तो फिर संविधान का और संविधान द्वारा बनाई इन व्यवस्थाओं का बोझ हम क्यों ढोएं?
आपने उस व्याख्यान में बहुत खूब कहा कि कानून जनता के लिए हैं इसलिए वे सरल होने चाहिए और उनमें किसी तरह की गोपनीयता नहीं होनी चाहिए. मी लॉर्ड, यह हम कहें तो आपसे कहेंगे, आप कहते हैं तो किससे कहते हैं? आपको ही तो यह करना है कि संविधान की आत्मा को कुचलने वाला कोई भी कानून प्रभावी न हो. गांधी ने ऐसा सवाल कितनी ही बार, कितनी ही अदालतों में पूछा था. लेकिन तब हम गुलामों को जवाब कौन देता? लेकिन अब?
अब तो एक ही सवाल है, जो न्यायपालिका सरकार की कृपादृष्टि के लिए तरसती हो, वह न्यायपालिका रह जाती है क्या? सवाल तो और भी हैं, जवाब आपकी तरफ से आना है.
लेखक गांधी शांति प्रतिष्ठान के अध्यक्ष हैं.