ग़ालिब की ज़िंदगी में हालांकि ऐसा कोई साल न आया जो अच्छा ठहरता लेकिन ख़राब सालों में उसने अपनी इंसानियत को कभी धुंधला न पड़ने दिया.
ग़ालिब को बने बनाए रास्तों पर चलने से उज़्र था. उनके किरदार में परम्पराओं के अंधानुकरण के प्रति एक जन्मना प्रतिपक्ष था. यह प्रतिपक्ष उन्हें नैसर्गिक रूप से ‘रह-ओ-रस्म’ का ‘मुन्हरिफ़’ (विरोधी) बनाता था. ग़ालिब ने अपने किरदार की इस निर्बाध सपाटता का तादात्म्य एक ऐसी कलम से किया था जिसे ‘क़त’ लगाकर टेढ़ा काटा जाता है किंतु टेढ़े क़त लगी वह कलम जब लिखती है तो ‘सीधा’ लिखती है.
'हूं मुन्हरिफ़ न क्यों रह-ओ-रस्म-ए-सवाब से
टेढ़ा लगा है क़त क़लम-ए-सरनविश्त को’
न केवल उस दौर में जिसमें ग़ालिब ज़िंदा थे, बल्कि हमारे समय में भी ग़ालिब की प्रासंगिकता क सर्वाधिक अमिटव्य चिन्ह यह ‘टेढ़ा’ लगा हुआ क़त’ है. कहने को हर एक कवि या शायर ने किसी न किसी रूप में चलते फिरते मज़हबी और दुनियावी संकीर्णताओं का थोड़ा बहुत विरोध किया है किंतु साहित्यिकता को भी लांघकर, जीवन में आचरण के स्तर पर भी संकीर्णता से मुक्त जीवन को एक बेपरवाह अन्दाज़ में जो जिया है, वह शख़्स ग़ालिब है. वह जिस तरह से जीवन को जीने का स्वप्न देखता है, उसमें सामाजिक-धार्मिक बंदिशें विचारों की एक इंडीविज़ूअल ऑटानमी से विस्थापित हो जाती हैं. विचारों की यह इंडीविज़ूअल ऑटानमी किसी अराजकता की प्रस्तावना नहीं करती, बस दिए हुए सत्यों से आंख-मूंदकर गलबहियां करने की जगह उन्हें उलट-पलटकर देखने की पेशकश करती है. इसी विश्लेषण बोध के चलते साहित्य के भीतर ग़ालिब का धार्मिकता-बोध केवल एक भावनात्मक विज्ञप्ति नहीं रहा बल्कि वह एक प्रखर और गंभीर बौद्धिक तर्क बन जाता है.
निजी तौर पर अपने से विपरीत धार्मिक पद्धति वाले लोगों, जिन्हें अपने एक शे’र में वह अहल-ए-कुनिश्त कहते हैं, की सोहबत में ग़ालिब उतने ही सहज थे जितने अपने समधर्मियों के बीच में. ग़दर के दिनों में ग़ालिब की मदद करने वालों में उनके हितैषी हिंदू शुभचिंतक सबसे आगे थे. वह महेशदास, जिसे क़िल्लत के घनघोर समय में शराब मुहय्या कराने के लिए ग़ालिब ने अपनी रचना ‘दस्तम्बू’ में ह्रदय की गहराई से धन्यवाद दिया था, का स्मरण इसलिए भी करते हैं कि भले स्वभाव के इस व्यक्ति ने शहर में मुसलमानों को बसाने के लिए कोई कसर नहीं उठा रखी थी. चूंकि ‘खुदा की मर्ज़ी न थी, उसकी क्या चलती’. महेश के अतिरिक्त वह अपने शागिर्दों में से एक हीरा सिंह नाम के नौजवान को याद करते हैं जो ग़दर के दुख भरे दिनों में निरंतर उनकी खैर ख़बर लेने के लिए आता रहा. हीरा सिंह को मदद की दरकार होती, ग़ालिब उसके साथ होते. ग़ालिब के एक दोस्त मास्टर प्यारे लाल ‘आशोब’ थे जो गुड़गांव में एक अध्यापक थे. वह दिल्ली कॉलेज के पास-आउट थे. उनकी गणना दिल्ली के प्रतिष्ठित गणमान्य लोगों में थी. हीरा सिंह की मदद को लेकर ग़ालिब मास्टर प्यारेलाल को ख़त लिखते हैं.
‘बरखुरदार हीरा सिंघ तुम्हारे पास पहुंचता है और ये तुम्हारा दस्तगिरफ़्ता (हवाले) है. रोहतक में तुमने उसे नौकर रखवा दिया था. ख़ैर, वहां की सूरत बिगड़ गयी. अब ये ग़रीब बहुत तबाह है. तुम्हीं दस्तगीरी (सहायता) करो तो ये संभले, वरना इसका नक़्श-ए-हस्ती (अस्तित्व का निशान) सफ़हे-दहर (संसार के पन्ने) से मिट जाएगा’.
मास्टर प्यारे लाल ‘आशोब’ ने ग़ालिब के फ़ारसी पत्रों का एक छोटा सा संकलन भी प्रकाशित कराया था (p.350,Russell & Islam OUP, New Delhi, 1994). जनवरी 1867 में ग़ालिब का मास्टर प्यारेलाल को लिखा गया एक ख़त मौजूद है. इस ख़त की भाषा में छिपे हुए स्नेह की बस कल्पना कीजिए.
‘लाहौर पहुंचकर तुमने मुझे ख़त न भेजा. उसकी जितनी शिकायत करूं, बजा है. तुम नहीं जानते कि मुझे तुमसे कितनी मुहब्बत है. मैं तुम्हारा आशिक़ हूं और क्यों कर न हूं? सूरत के तुम अच्छे. सीरत के तुम अच्छे. खालिक ने तुममें कूटकूट कर खूबियां भर दी हैं. अगर मेरा सुलबी फ़र्जन्द (सौतेला पुत्र) ऐसा होता तो मैं उसे अपना फ़ख़्र-ए-ख़ानदान समझता. तुम जिस क़ौम और जिस ख़ानदान में हो, उस क़ौम और उस ख़ानदान के ज़रिया-ए-इफ़्तिख़ार (गौरव के कारण) हो. ख़ुदा तुमको सलामत रखे’.
जब कि दिल्ली वीरान पड़ी थी और ग़ालिब तन्हा थे, शिवजी राम नाम का एक नौजवान जिसे ग़ालिब जिसे बेटे की तरह मानते थे, ग़ालिब के पास आता और घण्टों बैठता. दुख दर्द बांटता. उसका बेटे बाल मुकुंद से भी ग़ालिब की खूब छनती. तमाम खुतूतों और ‘दस्तम्बू’ में इन रिश्तों का ज़िक्र ग़ालिब के सहज और सम्मिश्रित सामाजिक जीवन का संकेतक़ है. यदि यह सहज-सम्मिश्रित जीवन ग़ालिब की दिमाग़ी बनावट का हिस्सा न रहता तो क्या उनकी कलम यह कह पाती.
'काबे में जा रहा, तो न दो ताना, क्या कहीं
भूला हूं, हक़-ए-सोहबत-ए-अहल-ए-कुनिश्त को’
वेदना जब चुपके से संवेदना हो जाए, तो उसमें जगह की कोई कमी नहीं रहती. दुख का परकेन्द्रण मानवता की दिशा में उठा पहला पग है. ग़ालिब सभी के दुखों में शामिल होते. एक खत्री अपने बेटे के असमय देहांत पर उनसे मर्सिया लिखवाता. वह ग़ालिब का दोस्त था; बे-औलाद. इसलिए उसने ‘अपने हक़ीक़ी भतीजे’ को बेटा मानकर अपना लिया था किंतु नियति को कुछ और ही स्वीकार था.
‘18-19 वर्ष की उम्र, क़ौम का खत्री, खूबसूरत, वजादार नौजवान, बीमार पड़कर मर गया’- ग़ालिब मुंशी हरगोपाल को एक ख़त में लिखते हैं. ‘अब उसका बाप मुझसे अर्ज़ करता है कि एक ‘तारीख़’ उसके मरने की लिखूं, ऐसी कि वो फ़क़त तारीख़ न हो, बल्कि मर्सिया हो, और वो उसे पढ़-पढ़ के रोया करे’. ग़दर के ठीक बाद के दिन थे. ग़ालिब का लिखना छूटा हुआ था. उन्होंने मुंशी हर गोपाल से आग्रह किया कि ‘जो ख़ूं चकां शेर तुम निकालोगे, वो मुझसे कहां निकलेंगे. ब-तरीक़े मसनवी 20-30 शे’र लिख दो. नाम उसका बिरज मोहन था और उसको बाबू-बाबू कहते थे’.
धर्म और बिरादरी की बंदिशों के बाहर ग़ालिब के आंगन में सभी का आना जाना था. वह ‘बरहमन’ से आने वाले साल पर पूछते कि वह कैसा रहने वाला है.
'देखिए पाते हैं उश्शाक़, बुतों से क्या फ़ैज़
एक बरहमन ने कहा है कि ये साल अच्छा है’
ग़ालिब की ज़िंदगी में हालांकि ऐसा कोई साल न आया जो अच्छा ठहरता लेकिन ख़राब सालों में उसने अपनी इंसानियत को कभी धुंधला न पड़ने दिया.
(व्यक्त विचार निजी हैं और मिर्ज़ा ग़ालिब पर लेखक की अप्रकाशित रचना के अंश हैं)