राम मंदिर चंदा अभियान में योगदान के बाद सुर्ख़रू हुए हिंदी के वरिष्ठ साहित्यकार उदय प्रकाश के नाम एक दूसरे वरिष्ठ साहित्यकार अनिल यादव की चिट्ठी.
मैं तो चंदे की रसीद पर समर्पणकर्ता के ऊपर आपके कलात्मक हस्ताक्षर देखने में खोया रहा. अयोध्या में जिनका मंदिर बनने जा रहा है वे बालक राम हैं. रामलला. जब तक वयस्क नहीं हो जाते तब तक अदालत अकेले नहीं जा सकते थे. इसलिए उनका मुकदमा संरक्षक और सखा के रूप में विहिप के त्रिलोकीनाथ पांडेय ने लड़ा जो कारसेवकपुरम में ही रहते हैं. विहिप का एक कार्यकर्ता भगवान का सखा और आप समर्पणकर्ता. यह कोई हेठी की बात नहीं है लेकिन जब आपके विचार अपनी जगह सलामत हैं तो क्या आप भावनाहीन ढंग से सिर्फ धन का समर्पण कर रहे थे. खैर, उसका भी एक मूल्य है.
देखिए, मैंने आपके नाम के आगे जी लगाया है. अधिकांश हिंदी वाले यही ताड़ते रहते हैं कि संबोधन कैसे किया गया. वे सम्मान की अनुपस्थिति को अपमान समझते हैं. जरा सा सम्मान मिला नहीं कि उनकी आंखें बंद हो जाती हैं, लेकिन आपकी आंखें ऐसी नहीं हुआ करती थीं इसीलिए आपने 2015 में कलबुर्गी, पानसारे, दाभोलकर जैसे सेकुलर विचारकों और दादरी में अखलाक की लिंचिंग के बाद अपना साहित्य अकादमी पुरस्कार वापस लौटा दिया था. उसके बाद देश में प्रायोजित ढंग से बढ़ाई जाती असहिष्णुता के विरोध में अवार्ड वापसी का सिलसिला चल पड़ा था. तब आपके लिए लेखक के सम्मान-अपमान से बड़ा मूल्य धार्मिक विद्वेष के कारण मारे जाते लोगों की हिफाजत था. आपको आजादी है कि अपने विचार बदल लें, चुनाव जिताने वाली धार्मिक कट्टरता और अन्याय की बुनियाद पर बन रहे मंदिर के प्रति आस्थावान हो जाएं. यह दुचित्तापन सिर्फ आपमें नहीं बहुत से सेकुलर और प्रगतिशीलों में पाया जाता है लेकिन क्या यह आस्था आपको इतना साहस नहीं देती कि मंदिर के चंदे में किए गए घपले की जांच की मांग कर सकें.
आप जानते ही हैं कि अयोध्या में राम मंदिर ट्रस्ट की ओर से चंपत राय बंसल ने साढ़े पांच लाख प्रति सेकेंड की दर से बढ़ती कीमत वाली एक जमीन और नजूल की कई ज़मीनें करोड़ों रुपए कीमत बढ़ाकर खरीदी हैं. राजनीतिक दलों को छोड़िए अयोध्या के साधु संत भी बालक राम की गुल्लक में गबन के विरोध में आवाज उठा रहे हैं. क्या आपको जानने की कोशिश नहीं करनी चाहिए कि आपके फ्रीलांसिंग और रॉयल्टी के पैसे और अन्य करोड़ों आस्थावानों की गाढ़ी कमाई को मंदिर पर खर्च करने के बजाय भ्रष्ट पदाधिकारी अपनी जेब में क्यों भर रहे हैं. भक्तों के लिए आस्था, समर्पण, बलिदान वाली भक्ति और अपने लिए मुद्राभक्ति! यह लीला कैसे चल रही है? अगर आपने स्थानीय समीकरणों को साधने के लिए, डर कर या सिर्फ चर्चा के लिए ही चंदा-प्रदर्शन किया था तो भी एक धार्मिक उपभोक्ता होने के नाते पूछ तो सकते हैं न कि आपके पैसे का कैसे उपयोग किया जा रहा है.
अगर आप 5400 रुपये चंदे की तुच्छ रकम को भूल चुके हैं और आपके विचार अब भी अपनी जगह सलामत हैं तो क्यों न माना जाए कि अपने लेखक के अतीत को दफन कर आप भी उसी ऊंचाई पर पहुंच चुके हैं जहां नाले की गैस से चाय बनाने और चाय की गैस से साहित्य बनाने में कोई फर्क नहीं बचता है. क्या अब आपका जीवन भी धार्मिकता की पन्नी में लिपटा एक घपला है.
सादर, आपका एक मुरीद
अनिल यादव