50 फीसदी थर्मल पावर प्लांट तय मानकों से अधिक पानी का इस्तेमाल कर रहे हैं: सीएसई
पहले ही जल संकट से जूझ रहे क्षेत्रों में हैं 48 फीसदी संयंत्र
रिपोर्ट के अनुसार नियमों की अनदेखी करने वाले सबसे ज्यादा संयंत्र महाराष्ट्र और उत्तरप्रदेश में हैं. महाजेनको और यूपीआरवीयूएनएल से संबंधित इनमें से अधिकांश संयंत्र काफी पुराने हैं, जो आज भी पुरानी तकनीकों पर आधारित है जिससे काफी पानी की बर्बादी होती है. सीएसई द्वारा किए सर्वेक्षण में पाया गया है कि यह पुराने सयंत्र आज भी बिना कूलिंग टावरों के काम कर रहे हैं. देश में यह संयंत्र न केवल जल बल्कि उत्सर्जन सम्बन्धी मानदंडों का भी उल्लंघन कर रहे हैं.
1999 से पहले देश में निर्मित सभी वन्स-थ्रू आधारित बिजली संयंत्र अब पुराने हो चुके हैं जो प्रदूषण फैला रहे हैं. इनमें से कई संयंत्र को तो रिटायर किया जाना था हालांकि अभी तक ऐसा नहीं हुआ है. वे संयंत्र बिना किसी उत्सर्जन नियंत्रण उपकरणों या कूलिंग टावरों को स्थापित या अपग्रेड करने की योजना के बिना भी आज बेरोकटोक चल रहे हैं.
सीएसई में औद्योगिक प्रदूषण इकाई से जुड़ी सुगंधा अरोड़ा के अनुसार इन पुराने संयंत्रों को प्रदूषण फैलाने देना का विकल्प नहीं हो सकता. यदि रिटायर किए जाने वाले इन संयंत्रों के पास उत्सर्जन नियंत्रण प्रौद्योगिकियों को अपनाने और कूलिंग टावरों को लगाने या अपग्रेड करने की कोई योजना नहीं है तो इन्हें तुरंत बंद कर देना चाहिए.
समस्या सिर्फ इतनी नहीं है, सीएसई द्वारा हाल में जारी अनुमानों के अनुसार भारत में करीब 48 फीसदी थर्मल पावर प्लांट महाराष्ट्र के नागपुर और चंद्रपुर, कर्नाटक में रायचूर, छत्तीसगढ़ में कोरबा, राजस्थान में बाड़मेर और बारां, तेलंगाना में खम्मम और कोठागुडेम; और तमिलनाडु में कुड्डालोर जैसे जिलों में स्थित हैं, जो पहले ही पानी की कमी से जूझ रहे हैं. यही नहीं देश में कई जगह उद्योगों और स्थानीय लोगों के बीच पानी के उपयोग को लेकर टकराव की खबरें भी सामने आई हैं.
आंकड़ों में भी की जाती है हेरा-फेरी
सीएसई सर्वेक्षण में यह भी सामने आया है कि अपनी जल खपत सम्बन्धी आंकड़ों को साझा करने के लिए राज्यों में जिन आंकड़ों और उनके प्रारूपों का उपयोग किया जा रहा हैं उनमें कई खामियां हैं. यह भी पता चला है कि कई संयंत्र अपनी पर्यावरण रिपोर्ट में जो जल खपत सम्बन्धी जानकारी अधिकारियों को देते हैं वो या तो कम करके या फिर गलत दी जाती है.
यही नहीं इन संयंत्रों द्वारा जल की खपत सम्बन्धी जो आंकड़ें साझा किए जाते हैं, उनके आधार पर ही हर साल पानी के हिसाब किताब का ऑडिट किया जाता है जबकि उसकी किसी तीसरे पक्ष द्वारा निगरानी और सत्यापन नहीं किया जाता है. ऐसे में यह कितने विश्वसनीय हैं आप इसका अंदाजा खुद ही लगा सकते हैं.
यादव बताते हैं, "इस क्षेत्र का जल उपयोग बहुत ज्यादा है ऐसे में जल पर इसके बढ़ते प्रभाव को कम करने के लिए सभी जरुरी प्रयास किए जाने चाहिए. इस क्षेत्र की जल सम्बन्धी मांग को कम करने की काफी गुंजाइश हैं. इसके लिए जरुरी है कि 2015 के मानकों के कार्यान्वयन को सुनिश्चित किया जाना चाहिए. आंकड़ों की सही जानकारी भी जरुरी है. साथ ही पुराने और अकुशल वन-थ्रू कूलिंग प्लांट और नए संयंत्रों में जीरो लिक्विड डिस्चार्ज जैसे उपायों पर ध्यान देना भी जरुरी है. इससे जुड़ी चुनौतियों का समाधान करके क्षेत्र की जल सम्बन्धी मांग को सीमित किया जा सकता है. यदि मानकों को सख्ती से लागू किया जाता है तो इससे क्षेत्र की जल सम्बन्धी कुल खपत को काफी कम किया जा सकता है. इससे भारत में मौजूदा थर्मल पॉवर प्लांट, जल उपयोग के मामले में कहीं ज्यादा बेहतर बन जाएंगें."
(डाउन टू अर्थ से साभार)