कर्मचारियों को जन स्वास्थ्य व्यवस्था पर ज़रा भी भरोसा नहीं है. वे अगर बीमार पड़ जाएं तो काम छोड़ कर छुट्टी लेने की भी गुंजाइश नहीं है.
सूरज कहते हैं, "चाय बागानों में कोविड को लेकर बहुत डर है. अगर लोग बीमार भी हैं तो वह अस्पताल नहीं जाते. वे घरेलू इलाज करना पसंद करते हैं और टेस्ट केवल तभी कराते हैं जब बहुत ज्यादा बीमार पड़ जाते हैं. लोगों को डर है कि अगर वह पॉजिटिव पाए गए तो उन्हें वहां से ले जाया जाएगा. वह वैक्सीन लगवाने के लिए तैयार नहीं हैं क्योंकि उन्होंने वैक्सीनेशन के बाद मौतों के बारे में सुना है."
टेस्ट करवाना भी इतना आसान नहीं है. चलौनी चाय बागान से निकटतम टेस्ट करवाने का केंद्र 12 किलोमीटर दूर चलसा में है. किरन ओरन, जो टीआईएसएस में स्नातकोत्तर के छात्र व चलौनी चाय बागान से प्रयत्न के एक सदस्य भी हैं, कहते हैं, "लॉकडाउन के दौरान वाहनों पर लगी पाबंदियों के चलते लोग टेस्ट करवाने नहीं जा पाते. अपने लिए एक व्यक्तिगत वाहन को ले जाना महंगा पड़ता है, जो चाय बागान के लोगों की गुंजाइश से ज्यादा है."
इसलिए 31 मई से 8 जून के बीच, किरण ने चलौनी चाय बागान में मटेइल्ली ब्लॉक के स्वास्थ्य विभाग के सहयोग से कोविड टेस्टिंग अभियान का आयोजन किया. 200 लोगों का रैपिड एंटीजन टेस्ट किया गया; 6 टेस्ट पॉजिटिव आए.
लेकिन उनके भरसक प्रयासों के बावजूद कुछ बीमार पड़ने वाले कर्मचारियों ने घर पर रहने को ही चुना. इंडोंग चाय बागान की सुषमा ओरन को कोविड के लक्षण 2 मई को दिखने शुरू हुए. लेकिन टेस्ट करवाने के बजाय, उन्होंने अपने को अकेला कर लिया, अपने डॉक्टर से बात की और घर पर ही रहीं.
सुषमा खुशकिस्मत थीं क्योंकि वह ठीक हो गईं, लेकिन उन्होंने अपना टेस्ट क्यों नहीं कराया?
वे बताती हैं, "अगर मैं पॉजिटिव पाई जाती, तो मेरी मां जो दिहाड़ी मजदूर हैं, उन्हें चाय बागान का मैनेजमेंट काम पर न आने के लिए बोल देता. इसकी भी संभावना थी कि मेरे पड़ोसी भी कुछ समय के लिए अपने काम से हाथ धो बैठते."
चाय बागान कर्मचारियों को वेतन के साथ छुट्टी नहीं मिलती. इसलिए महामारी के दौरान, टेस्ट कराने के लिए भी काम को छोड़ना उनके लिए एक विकल्प नहीं है, खासतौर पर जब उन्हें पहले से ही आजीविका चलाने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है.
हरिहर नागबंसी, जो वीडियो वॉलिंटियर नाम की एक सामाजिक मीडिया पहल के लिए फ्रीलांस करते हैं इस ओर इशारा करते हैं, “केंद्र और राज्य सरकारों में महामारी के दौरान छुट्टी के लिए दिशानिर्देश हैं. यह दिशानिर्देश, जो 7 जून को कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग के द्वारा जारी किए गए, में परिवर्तित अवकाश, विशेष कैजुअल अवकाश, अर्जित अवकाश और आधे वेतन पर अवकाश का प्रावधान, पॉजिटिव पाए जाने पर सरकारी कर्मचारियों को उपलब्ध है.”
हरिहर पूछते हैं, "चाय बागानों में यह निर्देश क्यों नहीं लागू किए गए?"
न अवकाश, न आमदनी
केवल चाय बागानों में काम करने वाले कर्मचारियों पर ही बुरी मार नहीं पड़ी है. डूआर्स क्षेत्र में बड़ी संख्या में बिहारी मजदूर रहते हैं जो फैक्ट्रियों, ईंट के भट्टों और भवन निर्माण आदि जगहों पर काम करते हैं. जब से लॉकडाउन लगा है उनके पास कोई काम नहीं है.
45 वर्षीय असीम कुजुर डूआर्स क्षेत्र के शिशुझुमरा से आते हैं. एक प्लाईवुड फैक्ट्री में बिहारी मजदूर हैं और 300 रुपए प्रतिदिन कमाते हैं. मई में लॉकडाउन शुरू होने के बाद से असीम के पास कोई काम नहीं रहा. यही हाल इरफान का है जो एफसीआई यानी फूड कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया के गोदाम में दिहाड़ी पर काम करने वाला एक कर्मचारी है. गोदाम लॉकडाउन के दौरान भी चलता रहा लेकिन उपलब्ध काम में कमी आई है.
इरफान बताते हैं, "हम रोज करीब 700-800 रुपए रोज कमा लेते थे लेकिन अब यह घटकर 200 रुपए रह गया है." इस आमदनी के जाने से, काम करने वालों की लोन चुकाने और शिक्षा या बाकी खर्चे करने की क्षमता पर असर पड़ा है.
इस परिस्थिति के कई हल हैं जिन पर विचार किया जा सकता है.
पहला, कोविड को फैलने से रोकने के लिए बड़े स्तर पर रेंडम टेस्टिंग शुरू किया जाना आवश्यक है. एक सुनिश्चित न्यूनतम आय कर्मचारियों को गरीबी के चक्रव्यूह में फंसने से बचा लेगी. जो लोग पॉजिटिव पाए जाते हैं उन्हें भी क्वारंटाइन के दौरान वेतन सहित छुट्टी मिलनी चाहिए. ऐसा किए जाने पर ही इन क्षेत्रों में कोविड-19 से लड़ाई तो जीता जा सकता है.
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