देश के विभिन्न क्षेत्रों से हो रहे पलायन के पीछे जल संकट किसी न किसी रूप में एक कारक है और जलवायु परिवर्तन का बढ़ता प्रभाव इसे और कठिन चुनौती बना सकता है.
सूखा और बाढ़ की मार एक साथ
बिहार के 38 में से 28 ज़िले बाढ़ प्रवृत्त (फ्लड प्रोन) कहे जाते हैं. क्लाइमेट चेंज के कारण कई बार इन्हीं इलाकों को लंबे सूखे का सामना करना पड़ रहा है. मानसून में अकस्मात् परिवर्तनों के कारण यहां एक ही वर्ष में कभी-कभी एक ही जिले में बाढ़ और सूखा दोनों देखने को मिलते हैं, जिसके कारण बड़े पैमाने पर फसल नष्ट होती है और गरीबी बढ़ती है.
सहरसा, मधेपुरा, सुपौल और दरभंगा आदि ज़िलों की गिनती राज्य के सर्वाधिक गरीब जिलों में होती है. साल 2011 की जनगणना के मुताबिक सहरसा जिले की 90 प्रतिशत से अधिक आबादी ग्रामीण इलाकों में रहती है और यहां मूलभूत सुविधाओं की भारी कमी है. ऐसे में निरंतर बाढ़ (और कई बार सूखा और बाढ़) ने जिले की फसल पैदावार को गंभीर रूप से प्रभावित किया है. जिसके कारण लोगों को आजीविका के लिए दिल्ली, पंजाब, कोलकाता और मुंबई जैसी जगहों पर पलायन करना पड़ता है.
भारत के लिये खतरे की घंटी
जलवायु परिवर्तन के बढ़ते असर के कारण मौसमी अनिश्चिततायें बढ़ रही हैं जिसका सीधा असर कृषि और खाद्य सुरक्षा पर पड़ेगा. जीडीपी के गिरते ग्राफ और बढ़ती बेरोज़गारी को देखते हुये यह और भी चिन्ता का विषय है. इस लिहाज से भारत के लिये आपदा प्रभावित इलाकों में प्रभावी कदम उठाने होंगे. जल संचयन के तरीकों के साथ पानी के स्रोतों को पुनर्जीवित करने, जंगलों को बचाने, तटीय इलाकों में मैंग्रोव संरक्षण और सिंचाई के आधुनिक तरीके इसमें मददगार हो सकते हैं.
पलायन हमेशा मजबूरी में या परेशानी में उठाया गया कदम नहीं होता. कई बार लोग तरक्की के लिये स्वेच्छा से पलायन करते हैं. पलायन कई बार अनुकूलन (एडाप्टेशन) के रूप में भी देखा जाता है लेकिन जिन इलाकों से लोगों को हटाया जा रहा है उन्हें बसाने के लिये ऐसी जगहें ढूंढना भी चुनौती है जहां उन्हें रोज़गार मिले और वह फिर से विस्थापन को मजबूर न हों.
(डिस्क्लेमर – हृदयेश जोशी भारत में जलवायु परिवर्तन प्रेरित विस्थापन और पलायन पर बनी इस रिपोर्ट के सह-लेखकों में एक हैं)
उत्तराखंड: मौसम की मार से पहाड़ हुआ पहाड़ी जीवन
जलवायु परिवर्तन के युग में पानी की हर बूंद को बचाने की जरूरत