ऐसी विधवाओं की संख्या 5000 से अधिक है, जिन्हें सामाजिक सुरक्षा पेंशन के रूप में 1,000 रुपए प्रति माह दिए जाते थे.
90 वर्षीय चिरौंजी बाई बताती हैं, "बीमार हूं, शरीर साथ नहीं देता, फिर भी अपनी मांगों को लेकर तीन दशक से लगातार धरना-प्रदर्शन कर रही हूं. उम्र के इस पड़ाव में वह अपने नातियों के साथ रहती हैं. बेटी पहले ही बीमारी से गुजर चुकी है."
वह कहती हैं, "दो नाती हैं, जो अधिकतर बीमार ही रहते हैं. उनके पास कोई काम-धंधा नहीं है. बीमार आदमी को काम कौन देता है. पेंशन का ही सहारा था. वह भी दो साल से बंद है. हमारे ऊपर तो मुसीबतों का पहाड़ टूटा है, कैसे गुजारा करें. और तो और सरकार ने बीपीएल राशन कार्ड भी बंद कर रखा है. उन्होंने मुख्यमंत्री से गैस पीड़ित विधवाओं व गरीब परिवारों के बंद किये गये बीपीएल राशन कार्ड और पेंशन शुरू कर राशन दिलाने का आग्रह किया है."
70 वर्षीय पूनिया बाई अपने दो अस्वस्थ्य बेटों शंकर और पुरुषोत्तम कुशवाहा की परवरिश इसी पेंशन से करती थीं. पूनिया ने कहा, "बेटों की तबीयत जब ठीक होती है, तो वह इलेक्ट्रिशियन का काम कर लेते हैं."
कोविड-19 में यह काम भी बंद है. 85 वर्षीय कमला और 75 वर्षीय प्रेमबाई, 71 वर्षीय आयशा बी, जैसी पांच हजार विधवा महिलाओं की लगभग यही कहानी है. सभी के परिवार के सदस्य अस्वस्थ हैं. बुढ़ापे में मां, दादी, नानी बनकर वह बीमार नाती-पोते की देखभाल कर रही हैं. कमला ने कहा, "जीवन बहुत मुश्किल हो गया है. गरीबों की सुनने वाला कोई नहीं है."
सरकार की संवेदनहीनता का इसके अलावा भी उदाहरण है. पिछले साल लॉकडाउन के समय तीन माह तक प्रदेश के 25 लाख से अधिक वृद्धों, विधवाओं, परित्यक्ता महिलाओं एवं विकलांगों को मात्र 600 रुपये सामाजिक सुरक्षा पेंशन नहीं मिली थी. सामाजिक न्याय विभाग के अनुसार वित्त विभाग द्वारा सामाजिक न्याय विभाग को हितग्राहियों की संख्या के अनुपात में राशि उपलब्ध नहीं कराई गई थी. जिस कारण से बैंकों से पेंशन का भुगतान नहीं किया जा सका था. जबकि उच्चतम न्यायालय का केंद्र व राज्य सरकार को स्पष्ट निर्देश है कि प्रत्येक माह की 5 तारीख के पूर्व वृद्धावस्था, विधवा पेंशन व विकलांग पेंशन की राशि बैंक खातों में हर हालत में जमा करा दी जानी चाहिए.
उच्चतम न्यायालय द्वारा न्यायमूर्ति बीके अग्रवाल की अध्यक्षता में बनाई गई गैस पीड़ितों की निगरानी समिति के सदस्य पूर्णेन्दु शुक्ला कहते हैं, "यह कैसी सरकार है. जो इस महामारी में निराश्रित गैस पीड़ितों का सामाजिक सुरक्षा पेंशन रोक देती है. राज्य सरकार सुशासन का डंका पीटती है, किंतु बेहद अफसोस एवं शर्म की बात है कि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को उनके द्वारा की गई घोषणा याद नहीं रहती. उन्हें याद दिलाने के लिए निराश्रित पेंशन भोगियों को मंत्रालय के गलियारों में भीख मांगनी पड़ती है. कोविड-19 से शहर में हुई तीन चौथाई मौतें गैस पीड़ितों की है, जबकि शहर में उनकी आबादी एक चौथाई भी नहीं है, फिर भी उनके शरीर को पहुंची क्षति को अस्थाई बताया जाता है, यह उच्चतम न्यायालय को गुमराह करने वाली बात है."
भोपाल ग्रुप फॉर इनफार्मेशन एंड एक्शन की प्रमुख रचना ढींगरा कहती हैं, "गैस पीड़ितों के स्वास्थ्य में बेहतरी लाने के लिए बने योग केंद्रों में शादियां हो रही हैं. हजारों टन जहरीला कचरा अभी भी फैक्ट्री के अंदर और आस-पास गड़ा है, जिसकी वजह से एक लाख से अधिक लोगों का भूजल प्रदूषित है."
गौरतलब है कि भोपाल गैस त्रासदी के 37 वर्ष बाद भी मुआवजा, इलाज, पेंशन और दोषियों को दण्ड दिये जाने को लेकर दर्जनों जनहित याचिकाएं अलग-अलग अदालतों में विचाराधीन है. शासन की ओर से पीड़ितों को अभी भी न्याय नहीं मिल पा रहा है. जबकि गैस त्रासदी प्रभावितों में से लगभग 36 हजार से अधिक पीड़ित की मौत हो चुकी है और एक हजार से अधिक गंभीर बीमारियों अर्थात् फेफड़ों, किडनी, लीवर आदि बीमारियों से ग्रसित हैं.
लगभग तीन लाख प्रभावित निरंतर बीमार बने हुए हैं, इनमें गैस त्रासदी के पश्चात पैदा हुए बच्चे भी शामिल हैं. दिसम्बर 1984 के दो और तीन की रात को यूनियन कार्बाइड इंडिया लिमिटेड की कीटनाशक कारखाने के टैंक से रिसी 40 टन मिथाईल आयसोसायनेट गैस से यह भयावह हादसा हुआ था. लोगों के जीवन पर इसका असर किसी न किसी रूप में आज भी देखा जाता है.
(डाउन टू अर्थ से साभार)