अगर जी-7 को जी-8 या जी-9 न बनने देने की कोई जिद हो तो फिर इसमें चीन और भारत की जगह बनाने के लिए इटली और कनाडा को बाहर निकालना होगा. इन दोनों की आज कोई वैश्विक हैसियत नहीं रह गई है.
अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडन जी-7 बिरादरी को दो बातें बताना या उससे दो बातें मनवाना चाहते थे: पहली बात तो यह कि अमेरिका डोनाल्ड ट्रंप के हास्यास्पद दौर से बाहर निकल चुका है; दूसरी बात यह कि दुनिया के सामने सबसे बड़ी चुनौती चीन को उसकी औकात बताने की है. पहली बात बाइडन से कहीं पहले अमेरिकी मतदाता ने दुनिया को बता दी थी. बाइडन को अब बताना तो यह है कि अमेरिका में कहीं ट्रंप ने बाइडन का मास्क तो नहीं पहन लिया है! पिछले दिनों फलस्तीन-इजरायल युद्ध के दौरान लग रहा था कि ट्रंप ने बाइडन का मास्क पहन रखा है. चीन को धमकाने के मामले में भी बाइडन का चेहरा दिखाई देता है, ट्रंप की आवाज सुनाई देती है. बड़ी पुरानी कूटनीतिक उक्ति कहती थी कि अमेरिका में आप राष्ट्रपति बदल सकते हैं, नीतियां नहीं. सवाल वीजा, नागरिकता, रोजगार नीति आदि में थोड़ी उदारता दिखाने भर का नहीं है. गहरा सवाल यह है कि दुनिया को देखने का अमेरिकी नजरिया बदला है क्या?
जी-7 ने नहीं कहा कि वह कोविड के मद्देनजर वैक्सीनों पर से अपना एकाधिकार छोड़ता है और उसे सर्वसुलभ बनाता है. उसने यह भी नहीं कहा कि वैक्सीन बनाने के कच्चे माल की आपूर्ति पर उसकी तरफ से कोई प्रतिबंध नहीं रहेगा. उसने यह जरूर कहा कि सभी देश अपना कॉरपोरेट टैक्स 15% करेंगे तथा हर देश को यह अधिकार होगा कि वह अपने यहां से की गई वैश्विक कंपनियों की कमाई पर टैक्स लगा सकें. दूसरी तरफ यह भी कहा गया कि भारत, फ्रांस जैसे देशों को, जिन्होंने अपने यहां कमाई कर रही डिजिटल कंपनियों पर टैक्स का प्रावधान कर रखा है, इसे बंद करना होगा. ऐसी व्यवस्था से सरकारों की कमाई कितनी बढ़ेगी, इसका हिसाब लगाएं हिसाबी लोग लेकिन मेरा हिसाब तो एकदम सीधा है कि ऐसी कमाई का कितना फीसदी गरीब मुल्कों तक, और गरीब मुल्कों के असली गरीबों तक पहुंचेगा, इसका पक्का गणित और इसकी पक्की योजना बताई जाए! कोविड की मार खाई दुनिया में यह सुनिश्चित करने की तत्काल जरूरत है कि किसी भी देश की कुल कमाई का कितना फीसदी स्वास्थ्य-सेवा पर और कितना फीसदी शिक्षा के प्रसार पर खर्च किया ही जाना चाहिए; और यह भी कि शासन-प्रशासन के खर्च की उच्चतम सीमा क्या होगी. ऐसे सवालों का जी-7 के पास कोई जवाब है, ऐसा नहीं लगा.
चीन के बारे में बाइडन को जी-7 का वैसा समर्थन नहीं मिला जैसा वे चाहते थे. वह संभव नहीं था क्योंकि यूरोपीयन यूनियन चीन के साथ आर्थिक साझेदारी की संभावनाएं तलाशने में जुटा है. ब्रेक्जिट के बाद का इंग्लैंड भी चीन के साथ आर्थिक व्यवहार बढ़ाना चाहता है. चीन भी यूरोपीयन यूनियन के साथ संभावित साझेदारी का आर्थिक व राजनीतिक पहलू खूब समझता है. इसलिए उसने काफी रचनात्मक, लचीला रुख बना रखा है. इससे लगता नहीं है कि चीन का डर दिखा कर दुनिया का नेतृत्व हथियाने की बाइडन की कोशिश सफल नहीं हो सकेगी. आज हालात अमेरिका के नहीं, चीन की तरफ झुके हुए हैं. चीन के पास भी दुनिया को देने के लिए वह सब है जो कभी अमेरिका के पास हुआ करता था.
चीन के पास जो नहीं है वह है साझेदारी में जीने की मानसिकता. इसमें कोई शक नहीं कि चीन तथाकथित आधुनिकता से लैस साम्राज्यवादी मानसिकता का देश है. वह निश्चित ही दुनिया के लिए एक अलग प्रकार का खतरा है और वह खतरा गहराता जा रहा है. लेकिन उस एक चीन का मुकाबला, कई चीन बना कर नहीं किया जा सकता है. चीन को दुनिया से अलग-थलग करके या जी-7 क्लब के भीतर बैठकर उसे काबू में करने की रणनीति व्यर्थ जाएगी. चीन का सामरिक मुकाबला करने की बात उसके हाथों में खेलने जैसी होगी. फिर चीन के साथ क्या किया जाना चाहिए? हर अंतरराष्ट्रीय मंच पर उसे जगह देकर, अंतरराष्ट्रीय समाधानों के प्रति उसे वचनबद्ध करके ही उसे साधा जा सकता है. रचनात्मक नैतिकता व समता पर आधारित आर्थिक दवाब ही चीन के खिलाफ सबसे कारगर हथियार हो सकता है. सवाल तो यह है कि क्या जी-7 के पास ऐसी रचनात्मक नैतिकता है? जी-7 के देशों का अपना इतिहास स्वच्छ नहीं है और उनके अधिकांश आका अपने-अपने देशों में कोई खास उजली छवि नहीं रखते हैं.
अंधेरे से अंधेरे का मुकाबला न पहले कभी हुआ है, न आज हो सकता है.
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