केदारनाथ आपदा के 8 साल: इसी तरह नज़रअंदाज़ किया गया तो नई आपदाओं का ही रास्ता खुलेगा

पिछले 20 साल में इन आपदाओं की संख्या बढ़ी है. इंटरनेट और सोशल मीडिया के विस्तार के कारण अब इनकी अधिक रिपोर्टिंग भी हो रही है. केदारनाथ आपदा हो या इस साल फरवरी में आई चमोली की बाढ़ इनका पता पहले फेसबुक और ट्विटर जैसे माध्यमों से ही चला.

WrittenBy:हृदयेश जोशी
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आपदा प्रबंधन और सोच नदारद

हिमालयी इतिहास के जानकार शेखर पाठक कहते हैं न जाने कितनी घटनाओं को पिछले 200 साल में आपदाओं में गिना ही नहीं गया और न ही इनसे कोई सीख ली गई. साल 2013 की केदारनाथ आपदा ने कम से कम यह सच उजागर किया कि हम किस तरह नदियों पर क़ब्ज़ा कर रहे हैं और बड़े-बड़े बांधों का अनियंत्रित निर्माण हो रहा है. आपदा प्रबंधन के साथ मॉनिटरिंग और अलर्ट (निगरानी चेतावनी तंत्र) के मामले में हिमालयी क्षेत्रों में वह सुविधायें दूर-दूर तक नहीं हैं जो किसी हद तक चक्रवाती तूफानों से निपटने में उपलब्ध हैं.

सवा सौ साल पहले अंग्रज़ों ने बिरही झील के टूटने से पहले (1894 की बाढ़) जो अलर्ट सिस्टम विकसित किया वैसी तत्परता आज तमाम संसाधनों और टेक्नोलॉजी के बावजूद नहीं दिखती. साल 1893 में जोशीमठ के पास बिरही नदी में पहाड़ टूटकर आ गिरा और उसका बहाव रुक गया. इस झील को इतिहास में बिरही या गौना झील के नाम से जाना जाता है. झील के टूटने और आसन्न खतरे को भांप कर अंग्रेज़ों ने बिरही से हरिद्वार तक टेलीफोन लाइन बिछा दी. ये बहुत बड़ी उपलब्धि थी क्योंकि टेलीफोन तब बिल्कुल नई टेक्नोलॉजी थी और भारत में आये मुश्किल से 10 साल हुये थे.

अगले साल 1894 में जब पानी के बढ़ते दबाव से वह झील टूटी तो फोन लाइन होने के कारण अलर्ट जारी कर दिया गया और किसी की जान नहीं गई. महत्वपूर्ण है कि उत्तराखंड जैसे संवेदनशील इलाके में आपदाओं की बढ़ती संख्या और भयावहता को देखते हुये आज भी कोई प्रभावी वॉर्निंग (चेतावनी) सिस्टम नहीं है. चमोली में इसी साल फरवरी में आई बाढ़ से ऋषिगंगा और धौलीगंगा पर बनी दो पनबिजली योजनाओं पर काम कर रहे 200 से अधिक लोग मरे या लापता हैं. इससे पता चलता है कि हमारी आपदा मॉनीटरिंग कितनी कमज़ोर है.

जलवायु परिवर्तन से बढ़ेगी समस्या

हिमालयी क्षेत्र पर जलवायु परिवर्तन का असर स्पष्ट है. पिछले दो दशकों में कई वैज्ञानिक रिपोर्टों में यह चेतावनी सामने आ चुकी है. ग्लोबल वॉर्मिंग से यहां के जंगलों, नदियों, झरनों, वन्य जीवों और जैव विविधता पर तो संकट है ही अति भूकंपीय ज़ोन में होने के कारण भूस्खलन और मिट्टी के कटाव का ख़तरा ऐसे में बढ़ रहा है. सरकार कहती है कि पर्यटन और पनबिजली ही उत्तराखंड में राजस्व के ज़रिये हैं. इन दोनों ही मोर्चों पर उसकी नीति पर्यावरण के मूल नियमों से उलट है जो खुद संसद ने बनाये हैं.

आज सरकार यहां बेतरतीब हाइड्रो पावर प्रोजेक्ट्स के निर्माण पर आमादा तो है ही उसने पर्यटन और रोज़गार को बढ़ाने के नाम पर जो चार धाम यात्रा प्रोजेक्ट बनाया है वह सभी नियमों की धज्जियां उड़ाता है. यह भी स्पष्ट है कि इन योजनाओं की घोषणा के बाद राज्य के आम आदमी की माली स्थिति में कोई अंतर नहीं आता केवल बड़ी कंपनियों और ठेकेदारों को अनुबंध मिलते हैं. केदारनाथ आपदा के बाद तत्कालीन मुख्यमंत्री ने कहा था कि वह नया उत्तराखंड बनायेंगे. इन नये उत्तराखंड में पर्यावरण और पारिस्थितिकी को इसी तरह नज़रअंदाज़ किया गया तो वह नई आपदाओं का ही रास्ता खोलेगा.

(हृदयेश जोशी की किताब ‘रेज ऑफ द रिवर – द अनटोल्ड स्टोरी ऑफ द केदारनाथ डिजास्टर’ केदारनाथ आपदा का ब्योरा पेश करती है. इसे हिन्दी में ‘तुम चुप क्यों रहे केदार’ के नाम से प्रकाशित किया गया है.)

(साभार- कार्बन कॉपी)

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