चप्पल और क्रीमरोल: लॉकडाउन में 15 साल की रोहिणी के अरमान

कोरोना की मार से गरीब और गरीब हो गए हैं. लोग अपनी छोटी-छोटी जरुरतें भी पूरी नहीं कर पा रहे हैं.

   bookmark_add
चप्पल और क्रीमरोल: लॉकडाउन में 15 साल की रोहिणी के अरमान
  • whatsapp
  • copy

वह थोड़ा मुस्करा कर कहती हैं, "मुझे अच्छा खाना खाने का मन करता है. मुझे चावल, चपाती, दाल, सब्ज़ी खाना है. मुझे क्रीमरोल, बेकरी के बिस्किट, नानखटाई, और केक खाना है. एक साल हो गया यह सब नहीं खा पायी, पिछले साल बिस्किट खाये थे पांच रूपये के. मुझे बिंदी, काजल, चूड़ी पहनना अच्छा लगता है. लेकिन अभी घर पर पैसे नही हैं. इसलिए यह सब कुछ नहीं कर सकते."

अपने हाथ में एल्यूमीनियम की दो पतली चूड़ियां दिखाकर वह कहती हैं, "यह पिछले साल साल संक्रांति पर 20 रूपये की खरीदी थीं. ज़्यादा पैसे नहीं थे तो सिर्फ एक-एक ही चूड़ी खरीदी. अभी कुछ दिन पहले हमारी बस्ती में एक पायल बेचने वाला आया था. मैं ऐसे ही पायल देखने गयी थी, लेकिन जैसे ही उसने पायल का दाम 300 बताया मैं बिना कुछ बोले घर लौट आयी."

अपने पैर की तरफ इशारा करते हुए वह कहती हैं, "मैं जंगल में लकड़ी काटने गयी तो पैर में चोट लग गयी थी. नंगे पांव गयी थी इसलिए खून निकल आया था चप्पल नहीं है मेरे पास. जब कोरोना ख़त्म होने के बाद काम मिलने लगेगा तो उस पैसे से चप्पल खरीदूंगी और क्रीमरोल खाऊंगी. लेकिन अभी बिलकुल पैसे नहीं है यह सब इच्छाएं दबानी पड़ती हैं. मां का चार दिन से पेट दुख रहा था उसकी दवाई लाने के लिए पैसे नहीं थे हमारे घर पर, बहुत बुरा लग रहा था. लेकिन नीम्बू पानी पीकर अब मां ठीक हो गयी है."

पांचवी तक पढाई कर चुकी रोहिणी पिछले कई सालों से अपने मां-बाप के साथ शक्कर कारखानों में जा रहीं हैं. वह पिछले तीन सालों से गन्ना काट रही हैं. वह कहती हैं, "पढाई करने का बहुत मन है लेकिन गन्ना काटने मां-बाप जाते हैं तो उनके साथ जाना पड़ता है. छोटी लड़कियों को यहां अकेले नहीं छोड़ते, इसलिए मां-बाप के साथ जाती हूं. मैं भी 12 घण्टे गन्ना काटती हूं.

रोहिणी की मां लता कहती हैं, "हमारे घर पर 10-20 रूपये तक नहीं हैं. अगर कुछ चोट लग जाए और तबीयत ख़राब हो जाए तो घर में ही इलाज करते हैं. क्या करें कुछ ज़रिया नहीं है हमारे पास. भाकरी और चटनी भी बड़ी मुश्किल से नसीब हो रही है. चटनी बनाने के लिए मिर्ची पाउडर भी हमारी पड़ौसन ने दिया है.

रोहिणी के पिता रमेश कहते हैं," हमारा जीना बहुत मुश्किल हो गया है. पैसे भी नहीं हैं काम भी नहीं है. कुछ तो काम मिलना चाहिए, ऐसे कब तक जिएंगे. प्रदेश सरकार को कुछ तो करना चाहिए.

Also see
कोरोना से उबरे लोगों में अगले छह महीनों के दौरान मृत्यु का जोखिम सबसे ज्यादा
महाराष्ट्र: महामारी में महाआपदा बन गए झोलाछाप डॉक्टर
subscription-appeal-image

Press Freedom Fund

Democracy isn't possible without a free press. And the press is unlikely to be free without reportage on the media.As India slides down democratic indicators, we have set up a Press Freedom Fund to examine the media's health and its challenges.
Contribute now

Comments

We take comments from subscribers only!  Subscribe now to post comments! 
Already a subscriber?  Login


You may also like