बस्तर में शांति के लिए आदिवासियों के साथ मेरी 11 दिन की पदयात्रा

मार्च के महीने में मैंने एक पूर्व पत्रकार और आंदोलनकारी के द्वारा, भारत सरकार और माओवादियों पर बातचीत शुरू करने का दबाव बनाने के लिए निकाली गई शांति यात्रा में भाग लिया.

WrittenBy:सुहास मुंशी
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पुलिस चीफ डीएम अवस्थी कहते हैं, "इस संभावना को बिल्कुल टटोला जाना चाहिए. पंजाब नागालैंड और मिजोरम में विद्रोही तत्वों से बातचीत की कोशिश की है. ऐसी कोई वजह नहीं है कि वही प्रयास यहां न किया जाए. इस अंतहीन युद्ध के हर बीतने वाले दिन, हम जानें गंवा रहे हैं. अगर माओवादी जनतंत्र में विश्वास रखते हैं, अगर वह विकास चाहते हैं, तो उन्हें बातचीत के लिए आगे आना चाहिए. मुझे नहीं लगता कि यह समस्या केवल काउंटर-इनसरजेंसी अभियानों से सुलझाई जा सकती है. हमें जनतांत्रिक उपायों व राजनैतिक उपायों को ढूंढने की कोशिश करनी चाहिए."

ऐसा नहीं है कि सरकारों ने कभी माओवादियों से बात करना नहीं चाहा. उदाहरण के तौर पर 2004 में आंध्र प्रदेश के अंदर बातचीत के कई राउंड हुए थे, लेकिन उनका कुछ खास नतीजा नहीं निकला. इतना ही नहीं माओवादी यह दावा भी करते हैं कि प्रशासन ने बातचीत के बीच में उनके वरिष्ठ नेताओं को मारकर कई बार उनकी पीठ में छुरा भोंका है.

अवस्थी यह स्वीकारते हैं कि पहले हुई बातचीत सफल नहीं रही लेकिन उन्हें उम्मीद है कि समय के साथ ये परिस्थितियां बेहतर हो गई होंगी. वे कहते हैं, "हां आंध्र प्रदेश में बातचीत असफल रही लेकिन तब से काफी समय बीत चुका है. नेतृत्व करने वाले लोग उस समय जवान थे. परंतु अब वे सभी बूढ़े हो चले हैं और नेतृत्व का बीड़ा पकड़ाने के लिए दूसरी पंक्ति में कोई नहीं है. उन्हें यह समझना चाहिए कि गांव तक भी विकास आ चुका है, लोग इस युद्ध की समाप्ति चाहते हैं."

माओवादी नेताओं की जेल से रिहाई की संभावना पर अवस्थी कहते हैं कि ये राजनीतिक सवाल हैं और इनके जवाब चुने हुए प्रतिनिधि ही दे सकते हैं.

मार्च में द प्रिंट को दिए अपने एक साक्षात्कार में, छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने संकेत दिया की राजनीतिक नेतृत्व माओवादियों से संवाद करने के खिलाफ नहीं है. उन्होंने दावा किया, "राज्य सरकार नक्सलवादियों से समझौते की बातचीत से नहीं बच रही है. लेकिन बातचीत देश के संविधान की रूपरेखा और हमारी सरकार की नीतियों के अंतर्गत ही हो सकती है."

जुलूस के दौरान, मैंने एक पूर्व वरिष्ठ माओवादी नेता से बात की, जो 80 के दशक की शुरुआत में आंध्र प्रदेश से बस्तर आए थे और माओवादियों से सहानुभूति रखने वालों के तंत्र को खड़ा करने में तथा स्थानीय आदिवासियों की उनकी पहली फौज खड़ी करने में उनकी भूमिका थी.

पूर्व बागी नेता, जिन्होंने बदले की कार्यवाही के डर से अपना नाम जाहिर न करने को कहा, यह मानते हैं कि "बस्तर के लोग शांति चाहते हैं. इसलिए यह संभावना है कि हमारी हिंसक लड़ाई को कुछ समय के लिए रोक दिया जाए. इसका यह मतलब नहीं कि हम फासीवादी भारतीय राज्य सत्ता को मान लेंगे. सामाजिक अन्यायों जैसे असमानता, पहचान और एक नई जनतांत्रिक क्रांति के लिए हमारी लड़ाई जारी रहेगी. लेकिन हम अहिंसक तरीकों से ये लड़ाई करने पर विचार कर सकते हैं."

हालांकि उन्हें इस बात का संदेह था कि भारतीय प्रशासन ईमानदारी से ऐसा करेगा. उन्होंने कहा, "मुझे नहीं लगता कि भारत सरकार शांति चाहती है. नागाओं, मीज़ो और कश्मीरियों के साथ हुई शांति वार्ताओं का क्या हुआ? हर बार प्रशासन ने बातचीत कर रहे लोगों को धोखा दिया. उन्होंने आंध्र प्रदेश में हमसे बातचीत, हमें मिटाने की कोशिश करने का समय पाने के लिए ही की."

देवांश मेहता महात्मा गांधी के रूप में तैयार हुए

उसी दिन मुंबई के पत्रकार देवांश मेहता यात्रा में आकर शामिल हुए. देवांश शुभ्रांशु के साथ सीजीनेट स्वरा नाम की एक वेबसाइट में शोध निदेशक के रूप में काम कर रहे हैं, यह वेबसाइट छत्तीसगढ़ के जंगलों में रह रहे लोगों को फोन करके गोंडी भाषा में स्थानीय खबरों को रिपोर्ट करने में मदद करती है. शुरू के दो दिन देवांश जुलूस का नेतृत्व महात्मा गांधी की तरह लंगोट पहने और हाथ में छड़ी लिए कर रहे थे, अपने पालतू कुत्ते के खो जाने की वजह से उन्होंने यह जिम्मेदारी छोड़ दी थी. तब से वह अवकाश लेकर अपने कुत्ते को ही ढूंढ रहे थे लेकिन अब वह वापस आ गए थे हालांकि उनका कुत्ता नहीं मिला.

उन्होंने महात्मा गांधी की तरह कपड़े क्यों पहने थे?

देवांश उत्तर देते हैं: "मुझे यह ठीक लगा क्योंकि हमने अपने पदयात्रा का स्वरूप गांधीजी के नमक सत्याग्रह की पदयात्रा को ध्यान में रखकर ही रखा है. ईमानदारी से कहूं तो यह काम थका देने वाला है. मैंने शुरुआत में नंगे पैर चलने की कोशिश की लेकिन दो दिनों के बाद दर्द बर्दाश्त करना मुश्किल हो गया और मुझे जूते पहनने पड़े.‌ मुझे लगता है कि अभी तक पैदल चलना एक इलहाम की तरह है, पैदल यात्रा ही आप के अंदर के इंसान को बदल देती है. यह आपको सोचने और लोगों से मिलने के लिए इतना समय देती है. गांधीजी को यही पसंद रहा होगा क्योंकि आवाजाही का सबसे जनतांत्रिक तरीका यही है, आपको ऐसा नहीं लगता?"

शुभ्रांशु चौधरी ने यात्रा का नामकरण "दांडी मार्च 2.0", 1930 में गांधी जी के द्वारा अंग्रेजों के नमक कानून के विरोध में गुजरात में स्थित साबरमती आश्रम से दांडी के लिए निकाली गई 24 दिन की यात्रा पर किया.

देवांश कहते हैं कि इसका उद्देश्य, प्रशासन और विद्रोहियों दोनों को यह देखने के लिए मजबूर करना है कि वे आम लोगों के शांति से जीवन जीने के अधिकार को पहचानें. दोनों पक्षों को एक दूसरे के साथ मिलकर काम करने के लिए प्रोत्साहन देना, जिससे लोगों के घाव भरने की प्रक्रिया शुरू हो सके और पीड़ितों के परिवार अपना जीवन शांति से आगे बढ़ा सकें.

वे कहते हैं, "एक योजना जिस पर हम काम कर रहे हैं वह है पीड़ितों का एक रजिस्टर बनाना. ये यहां के लोगों के द्वारा झेली गई हिंसा की कहानियों का एक संकलन बनाने का प्रयास है. हम यह सब newpeaceprocess.org पर इकट्ठा कर रहे हैं. अभी तक हमारे पास करीब 200 वृतांत आ चुके हैं और यह सभी बहुत पीड़ा देने वाले हैं. हमें उम्मीद है कि दुनिया के सामने यह कहानियां लाकर हम धरती के इस कोने में कुछ सकारात्मक बदलाव ला पाएंगे."

वह कोलंबिया के शांति और संधि के मॉडल का अनुसरण कर रहे हैं, देवांश आगे कहते हैं, "जहां पर विद्रोहियों और सरकार ने एक लंबी खींची हुई लड़ाई के बाद बातचीत करने का निर्णय लिया. कोलंबिया की तरह ही हम चाहते हैं कि यहां भी सरकार आधिकारिक तौर पर इसे उठाए, जिससे कि वह दोनों ही तरफ के पीड़ितों की पीड़ा को स्वीकारे और उचित मुआवजा देकर उन्हें आगे का जीवन जीने दे."

दोष में दोबारा शामिल होने के बाद से देवांश सबके आकर्षण का केंद्र बन गए. जिस भी गांव और कस्बे में हम घुसते लोग उनके स्वागत और माल्यार्पण के लिए तैयार रहते थे. खास तौर पर एक जुलूस में साथ चल रहे व्यक्ति संतोष अहिरवार जिनमें जीवन और संगीत के लिए प्रेम कूट कूट कर भरा था, में उन्होंने अलग ही श्रद्धा पैदा कर दी. "गांधी जी, क्या आप चाय, पानी या खाने के लिए कुछ लेना चाहेंगे?", "गांधी जी आप ठीक हैं न?", "गांधी जी, क्या आप कृपया मेरे परिवार से फोन पर बात करेंगे?"

संतोष परिहास नहीं कर रहे थे. उनके लिए और उनके जैसे कई और यात्रा में भाग लेने वाले और रास्ते में मिलने वाले गांव वालों के लिए देवांश मेहता थे ही नहीं, केवल गांधी ही थे. और संतोष को उनके आसपास रहने का, उनके साथ चलने का गर्व था. अंकित श्रद्धा क्रोध में बदल जाती जब संतोष को लगता है कि देवांश कुछ ऐसा बर्ताव कर रहे हैं जो गांधी के व्यक्तित्व से मेल नहीं खाता. एक बार उन्हें सिगरेट पीते देख संतोष ने टिप्पणी की, "लगता है कि गांधी जी का दिमाग चल गया है."

केवल गांधी जी के आस पास रहना है संतोष को प्रसन्न कर देता था और वह उनके संगीत में भी दिखाई देता. अमूमन हर रात जब यात्रा में शामिल लोग सोने के लिए लेट जाते, तो वह अपना हारमोनियम लेकर बैठते और गाते. कभी-कभी वह बस के ड्राइवर महेंद्र को जो ढोलक बजाने में पारंगत थे, अपना साथ देने के लिए राजी कर लेते. और जैसे-जैसे संतोष और महेंद्र की ताल बढ़ती जाती, लोग आस पास आकर नाचने भी लगते.

भान जी के लिए यह परेशानी का सबब था, क्योंकि उन्हें यह सुनिश्चित करना था कि जुलूस में शामिल लोगों को पर्याप्त आराम मिले जिससे वह अगले दिन जल्दी उठ सकें. संतोष उनसे विनती और मोलभाव करते, "बस पांच मिनट और. हम सब समेटने ही वाले हैं."

देवांश के लौटने के बाद, संतोष आम समय से जल्दी ही गाना शुरू करने लगे. कई बार ऐसे कस्बों गांवों और जंगलों में जहां पर फोन के नेटवर्क नहीं आते हैं और जहां लोग बहुत दूर दूर बसे हुए हैं, हम उन्हीं की आरामदायक व कोमल आवाज़ की वजह से सो पाते थे. अंधेरी रात में, खुले में पड़े थके-हारे शरीरों और बोझिल होते सरों को देखना मुश्किल हो जाता, लेकिन उनके गीत उस अंधेरे में मानवता के प्रकाशस्तंभ जैसे थे.

संतोष अहिरवार लोगों को डांस करवाते हैं

बस्तर में कई ऐसे आंदोलनकारी और पत्रकार हैं जो चौधरी की शांति की पहल से पूरी तरह सहमत नहीं हैं. उनका तर्क है कि किसी भी संघर्ष वाले इलाके में शांति की पहल के लिए, वर्षों तक हिंसा से पीड़ित लोगों से निरंतर पारस्परिक विचार विमर्श आवश्यक है जिससे उनके खिलाफ हुए अपराधों को ठीक से रिकॉर्ड किया जा सके और यह समझने के लिए कि किस प्रकार का समावेशी और शांति पूर्वक भविष्य वह अपने लिए चाहते हैं. एक सामाजिक कार्यकर्ता दावा करते हैं, "अपनी शांति यात्राओं में जो कार्य कर रहे हैं वह कैमरे के लिए अच्छा है. लेकिन दशकों से हिंसा से ग्रसित रहे समाज में शांति और समझौता ऐसे नहीं लाया जा सकता."

बस्तर क्षेत्र में 32 साल से पत्रकारिता कर रहे कमल शुक्ला यह कहते हैं कि आदिवासियों के हथियार उठाने के लिए राज्य और प्रशासन ही जिम्मेदार हैं. इसीलिए कोई भी शांति प्रक्रिया तभी काम कर सकती है, जब आदिवासियों को भारत के संविधान के पांचवे और छठे अनुच्छेद में दी गई स्वायत्तता उन्होंने प्रशासन से मिले.

वे समझाते हैं, "सबसे पहले तो वह प्रशासन ही है, जिसने अपनी उद्योग समर्थक नीतियों और अवैध तौर पर व जोर जबरदस्ती से उनकी जमीनें छीन कर निजी खनन कंपनियों को दीं, जिससे लोग हथियार उठाने को मजबूर हुए हैं. जैसा मुझे दिखाई पड़ता है, हर आने वाली सरकार ने आदिवासियों को उनके संवैधानिक अधिकार न देकर ऐसी परिस्थितियां पैदा की हैं जिनका फायदा माओवादियों ने अपने हित के लिए उठाया है. कोई भी शांति वार्ता मौलिक समस्या को समझकर शुरू होनी चाहिए."

केओटी में मैं एक गांव के वृद्ध व्यक्ति जिनका नाम नरेश देव नारेती था, से मिला और उन्होंने भी यही विचार प्रकट किए कि आदिवासियों को लगता है कि सरकार उनके बजाय खनन कंपनियों के हित में काम करती है.

वे शिकायत करते हुए कहते हैं, "यह सभी हथियारों से लैस फौजें यहां पर खनन कंपनियों की सुरक्षा के लिए हैं, हम जानते हैं कि वह हमारे लिए यहां नहीं हैं. हम से छीनी गई भूमि पर हजारों करोड़ रुपए का खनन इस इलाके में होता है. और हमें बदले में क्या मिला? जब यह कंपनियां इस जगह को खोखला कर देंगी तो वह अपना बोरिया बिस्तर उठा कर चली जाएंगी, और हमारे पास इस निर्जन और विषैले रेगिस्तान के अलावा कुछ नहीं रह जाएगा." नरेश कौतूहल भरा सवाल पूछते हैं, "ऐसी परिस्थितियों में आप शांति वार्ता कैसे कर सकते हैं? आप ऐसे प्रशासन से संवाद कैसे कर सकते हैं जो हमारे नेताओं को केवल हमारे हक के लिए बोलने पर जेल में डाल देता हो?"

वे 28 वर्षीय हिडमे मार्कम की बात कर रहे थे, जो आदिवासियों के लिए हित में काम करते हैं और उन्हें 8 मार्च अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस पर, एक पूर्व नक्सली 20 वर्षीय पांडे कावासी की पुलिस हिरासत में हुई मौत के लिए प्रदर्शन करने की वजह से जेल में डाल दिया गया था. पांडे का परिवार यह आरोप लगाता है कि उनकी हत्या पुलिस ने पीट-पीटकर की. पुलिस ने मार्कम को प्रदर्शन से उठा लिया और कहा कि वह एक कुख्यात माओवादी नेत्री हैं, ऐसा बावजूद इसके जब बीते वर्षों में उनकी कई वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों और राजनीतिक नेताओं के साथ फोटो हैं.

नरेश तर्क देते हैं, "जब प्रशासन हमारे लिए आवाज उठाने वालों को माओवादी बताकर जेल में फेंक देता है, तो वह हमें चुप रहने का संकेत दे रहा है. लोग दबाव से नहीं राजी किए जा सकते."

शुभ्रांशु चौधरी अपने आसपास पल रहे अविश्वास और क्रोध को नहीं नकारते.

वे कहते हैं, "मैं जानता हूं कि जो मैं करने की कोशिश कर रहा हूं वह असंभव से कम नहीं लेकिन मुझे लगता है कि मामला हर जगह यही है. जब भी आप कुछ ऐसा शुरू करते हैं तो सब कहते हैं कि यह असंभव है. जब आप काम कर देंगे तो सब कहेंगे कि हम जानते थे."

वह यह भी मानते हैं कि बस्तर में बहुत से लोग उनके तरीके से राजी नहीं, लेकिन वे दावा करते हैं कि आज समय बहुत महत्वपूर्ण है. वे समझाते हैं, "बस्तर आज जहां खड़ा है, उसके सामने दो रास्ते हैं. या तो पार्टी राज्य के साथ संधि करें और नेपाल की तरह संसदीय व्यवस्था का हिस्सा बन जाए. अन्यथा माओवादियों के आज का वयोवृद्ध नेतृत्व जो धीरे-धीरे जीवन के अंतिम पड़ाव की तरफ चल रहा है, उनके जाने के बाद, नेतृत्व जवान और शक्तिशाली स्थानीय कमांडरों के पास आकर बंट जाएगा और अफगानिस्तान जैसी परिस्थितियां पैदा हो जाएंगी.‌ हम भले ही इस काम के लिए सबसे उपयुक्त लोग न हों लेकिन किसी को तो इस अवसर का इस्तेमाल करना होगा. यह अवसर लगभग अगले पांच सालों के लिए मौजूद है जब तक माओवादियों का आज का नेतृत्व जीवित है और बातचीत भी करने से परहेज नहीं कर रहा. जब यह अलग-अलग धड़ों में टूट जाएगा तब अभूतपूर्व स्तर पर रक्तपात होगा."

शुभ्रांशु चौधरी अपनी किताब लेट्स कॉल हिम वसु, जो उन्होंने माओवादियों के साथ बिताए अपने समय पर लिखी थी, में अपने एक हम उम्र लड़के, जिससे वो करीब 30 साल पहले मिले थे के लिए अपने स्नेह की बात करते हैं, वह वसु की टूटी फूटी, सेकंड हैंड साइकिल की अप्रिय आवाज से उठने की बात करते हैं. अक्सर वह जब बिस्तर पर पड़े रहते थे तो वह उन्हें जोर-जोर से मार्क्स पढ़कर सुनाता था." वह वर्षों बाद वसु से मिलते हैं और उन्हें पता चलता है कि उसे चलने के लिए एक छड़ी की जरूरत है. "उसका चेहरा लकीरों से भरा था, जिंदगी ने उस पर दया नहीं दिखाई थी. मैंने चेहरे में मुश्किलें देखी लेकिन हमेशा की तरह उसके हाव-भाव शांतिपूर्ण थे, जो उसके पास मौजूद एके-47 से मेल नहीं खाते थे."

मैंने शांति वार्ता के असल होने की संभावना (जो असंभव से कम नहीं) के बारे में बेझिझक बात कर रहे शुभ्रांशु चौधरी से पूछा, क्या वह एक दिन वसु से इस संघर्ष से दूर, शायद संवाद करने की जगह पर मिलना चाहेंगे?

उन्होंने उत्तर में कहा, "अगर ऐसा हुआ, अगर हम इस उलझन के दो सिरों को किसी तरह मिला सकें तो यह एक सपने के सच होने जैसा होगा. यह एक फिल्म के जैसा होगा, अगर ऐसा हुआ तो हमारे संबंधों के लिए वह अलग प्रकार की पूर्णता लाएगा. आखिरकार हम यही तो हासिल करना चाहते हैं. वे लोग जिन्होंने इतना रक्तपात देखा है उन्हें किसी प्रकार का संवरण मिले. चाहे इसका कोई नतीजा ना निकले लेकिन कम से कम हमें यह जानने से शांति मिलेगी कि हमने बस्तर को एक बेहतर जगह बनाने की कोशिश की.”

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