हिमालय प्रहरी सुन्दरलाल बहुगुणा के व्यक्तित्व का फैलाव दुनिया भर में था. आम लोगों से लेकर विश्वविद्यालयों, बड़े शोध संस्थानों और गांव-चौपालों तक.
सुन्दरलाल बहुगुणा ने हिमालय की संवेदनशीलता को बहुत गहरे तक समझा ‘चिपको आंदोलन’ के आलोक में उन्होंने दुनिया के सामने प्रकृति और समाज के अन्तर्संबंधों को जिस तरह रखा, उससे पर्यावरण को नये सिरे से समझने में मदद मिली. हिमालय और प्रकृति से कैसे प्यार किया जाता है, समझा जाता है, महसूस किया जाता है, इस अहसास को उन्होंने अपनी पूरी जीवन यात्रा में शामिल किया.
जब दुनिया में उपभोग और तथाकथित विकास की नई परिभाषा गढ़ी जाने लगी थी तब सुन्दरलाल बहुगुणा के बहुत सारे विचार प्रकृति के बारे में ऐसे थे जो दुनिया को आसन्न संकटों से निकाल सकते थे. उन्होंने बहुत तार्किक तरीके से इस बात को सत्तर-अस्सी के दशक में ही रखना शुरू कर दिया था कि बेतरतीब विकास योजनाओं से जल, जंगल और जमीन पर खतरा पैदा होने वाला है. हिमालय के बारे में उनका मानना था कि हिमालय बचेगा तो जीवन भी रहेगा.
जब वे हिमालय की बात कर रहे होते थे तो उनकी चिंता सिर्फ हिमालय की नहीं थी, बल्कि एशिया की और भारत की बड़ी आबादी की थी जिनकी हिमालय और उनकी नदियों पर निर्भरता है. इसके लिये उन्होंने देश-दुनिया के विश्वविद्यालयों, शोध संस्थानों, पार्यावरण से जुड़ी बड़ी संस्थाओं और आम जनता से लगातार लंबे समय तक संवाद बनाया. कहा जा सकता है कि दुनिया भर में पर्यावरण को पाठ्यक्रम तक लाने और उस पर सरकारी विभाग खोलने तक में उनके विचारों की भूमिका रही.
‘चिपको आंदोलन’ के बाद 1980 में सरकार ने वन अधिनियम लाकर जंगलों को बचाने का सरकारी प्रयास किया. इस अधिनियम के अच्छाई-बुराई पर बातें हो सकती हैं, लेकिन यह कहा जा सकता है कि यह आंदोलन नीति-नियंताओं तक अपनी आवाज पहुंचाने में सफल रहा.
सुन्दरलाल बहुगुणा अस्सी के दशक में फिर चर्चा में आये. टिहरी में प्रस्तावित बांध परियोजना को कार्यरूप दिया जाने लगा तो टिहरी के प्रबुद्ध लोगों ने 1978 में टिहरी बांध विरोधी संघर्ष समिति का गठन किया. इसके संस्थापक अध्यक्ष वीरेन्द्रदत्त सकलानी थे. जब सुन्दरलाल बहुगुणा कोहिमा से कश्मीर की अपनी यात्रा (1981-83) से वापस आये तो उन्होंने इस आंदोलन में गहरी रुचि ली. वर्ष 1990 आते-आते तक उन्होंने इस आंदोलन को गति दी. हजारों की संख्या में लोग आंदोलन में शामिल हुये. बहुगुणा ने मौन के साथ भूख हड़ताल शुरू कर दी.
1993 में उन्होंने ‘हिमालय बचाओ आंदोलन’ को फिर से संगठित किया. 1995 में 45 दिन की भूख हड़ताल की जिसे तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिम्हा राव के आग्रह पर समाप्त किया. बाद में 2001 में गांधी समाधि, दिल्ली मे 74 दिन की भूख हड़ताल की. इसे बाद में पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा के आश्वासन के बाद समाप्त किया. इस प्रकार टिहरी बांध के विरोध में उन्होंने लगभग डेढ़ दशक तक आंदोलन किया. अंतिम समय तक वे अपने निवास ‘गंगा हिमालय कुटीर’ से इसके खिलाफ लड़ते रहे. गंगा को मां मानते हुये उन्होंने अपना मुंडन भी किया.
हिमालय प्रहरी सुन्दरलाल बहुगुणा के व्यक्तित्व का फैलाव दुनिया भर में था. आम लोगों से लेकर विश्वविद्यालयों तक. बड़े शोध संस्थानों से लेकर गांव-चैपालों तक. जैसा वह हिमालय को देखते-समझते थे, वैसा ही उनका जीवन भी था- दृढ़, विशाल और गहरा. यही वजह है कि आजादी के आंदोलन, टिहरी रियासत के खिलाफ संघर्ष और आजाद भारत में जन मुद्दों के साथ खड़े होकर उन्होंने अपने जीवन के अंतिम समय तक इन सरोकारों को कसकर पकड़े रखा.
प्रकृति, पानी, पहाड़ और पर्यावरण के प्रति उनकी संवेदना को इस बात से समझा जा सकता है कि उन्होंने चावल खाना छोड़ दिया था. उनका मानना था कि धान की खेती में पानी की ज्यादा खपत होती है. वे कहते थे कि इससे वह कितना पानी का संरक्षण कर पायेंगे कह नहीं सकते, लेकिन प्रकृति के साथ सहजीविता का भाव होना चाहिये. एक और उदाहरण है- 1981 में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने उन्हें पद्मश्री पुरस्कार देने की घोषणा की. उन्होंने इसे यह कहकर लेेने से इंकार कर दिया कि जब तक पेड़ कटते रहेंगे मैं यह सम्मान नहीं ले सकता.
हालांकि उनके काम को देखते हुये उन्हें प्रतिष्ठित जमनालाल पुरस्कार, शेर-ए-कश्मीर, राइट लाइवलीवुड पुरस्कार, सरस्वती सम्मान, आईआईटी से मानद डाक्टरेट, पहल सम्मान, गांधी सेवा सम्मान, सांसदों के फोरम ने सत्यपाल मित्तल अवार्ड और भारत सरकार ने पदविभूषण से सम्मानित किया. इन पुरस्कारों के तो वे हकदार थे ही, लेकिन सबसे संतोष की बात यह है कि हमारी पीढ़ी के लोगों ने उनके सान्निध्य में हिमालय और पर्यावरण की हिफाजत की जिम्मेदारियों को उठाने वाले एक समाज को बनते-खड़े होते देखा है.