लंगड़ी दुनिया दौड़ रही है और अंधी दुनिया उसे रास्ता बता रही है

फिलिस्तीन को यह समझना ही चाहिए कि चाहे जैसे भी बना हो लेकिन पिछले 70 से अधिक सालों में इजरायल विश्व मानचित्र पर अपनी जगह बना चुका है.

WrittenBy:कुमार प्रशांत
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साम्राज्यवादी ताकतों की जबरदस्ती से इजरायल बना तो उसने इसी जबरदस्ती को अपनी अस्तित्व रक्षा का हथियार बना लिया. जबरदस्ती का मुकाबला करने का दूसरा कोई रास्ता न पा कर फिलिस्तीन ने भी जबरदस्ती का ही रास्ता पकड़ा. आज की दुनिया में जबरदस्ती का एक ही मतलब होता है- आतंकी काररवाई! इस तरह यरुशलम की पवित्र धरती आतंकवाद का आतंकवाद से मुकाबला करने की अभिशप्त धरती में बदल गई जिसे पर्दे के पीछे से उकसाया-भड़काया जाता रहा.

1993-95 के बीच लंबी वार्ता के बाद जो ओस्लो समझौता हुआ वह कागज पर ही रहा, इजरायल के मन में नहीं उतरा. हमें पाकिस्तान के साथ हुए अपने शिमला समझौते से इसे समझना चाहिए. इसलिए 6 फिलिस्तीनी परिवारों को विस्थापित करने के आदेश को अपने लिए स्वर्णिम मौका मान कर, अरबी आतंकवादी संगठन हमास ने लपक लिया और उसने इजरायली बसाहट पर रॉकेट दागे. इस रॉकेट को लपक लिया इजरायल के हैसियतविहीन प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू ने. प्रधानमंत्री बनने की लगातार तीन असफल कोशिशों के बाद होना तो यह चाहिए था कि नेतन्याहू चुनावी राजनीति से अलग हो जाते लेकिन ऐसा लोकतंत्र किसे पसंद आता है कि जो आपका विकल्प भी खोज सकता हो. इसलिए जब तक दूसरी कोई सरकार नहीं बन जाती है, नेतन्याहू नाममात्र के प्रधानमंत्री बने बैठे हैं और किसी तिकड़म का इंतजार कर रहे हैं. ऐसे में हमास के रॉकेट ने उन्हें मुंह मांगा अवसर दे दिया. अब वे इजरायली राष्ट्रवाद का नारा उठा कर फिलिस्तीन पर टूट पड़े हैं. यह सत्ता में बने रहने का वही फार्मूला है जिससे हमारा खासा परिचय है.

फिलिस्तीन को यह समझना ही चाहिए कि चाहे जैसे भी बना हो लेकिन पिछले 70 से अधिक सालों में इजरायल विश्व मानचित्र पर अपनी जगह बना चुका है. जैसे हम अब पाकिस्तान से इंकार नहीं कर सकते हैं, वैसे ही फिलिस्तीनी इजरायल से इंकार नहीं कर सकते. इजरायल को भी यह सच अंतिम रूप से स्वीकार कर लेना चाहिए कि उसे जितना भू-भाग मिला है, वही उसकी सीमा है. इसमें विस्तार की कोई भी कोशिश आत्मघाती होगी. आतंकी कारर्रवाइयों से न कोई मुकम्मल मुल्क बनता है, न टिकता है, न सुख-शांति-समृद्धि पा सकता है. इस संदर्भ में भारत समेत दुनिया के सभी न्यायप्रिय मुल्कों की एक ही भूमिका हो सकती है कि इन दोनों के बीच न आग भड़के, न भड़काई जाए. यहां मौन कायरता बन जाती है, अनदेखी अन्याय में हिस्सेदारी. वैश्विक ताकतें यही कर रही हैं.

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