उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ से 40 किलोमीटर दक्षिण उन्नाव जिले में ग्रामीण अपने परिजनों का दाह संस्कार करने के बजाय उन्हें दफनाने को मजबूर हैं. हर गांव की लगभग एक ही कहानी है.
यहां के दलित परिवार हों या सवर्ण परिवार सबका यही हाल है. वह गंगा नदी के किनारे शवों को दफना रहे हैं. बड़ी संख्या में शवों को दफनाया जाना बीते दिनों खबर बना. हालांकि वहीं कुछ लोग ऐसे भी हैं जो अपनों को लेकर गंगा किनारे भी नहीं जा सके. उन्होंने अपने खेत में ही दफना दिया. मीडिया में इसकी खबर नहीं है.
21 वर्षीय दीपक कुमार 21 अप्रैल को उन्नाव में अपने गांव कुंभी वापस आए थे. वे केंद्र शासित प्रदेश दादरा और नगर हवेली में दिहाड़ी मजदूर का काम करते है. बीते दिनों दीपक की मां 45 वर्षीय रामेश्वरी देवी का निधन हो गया. कुमार कहते हैं, ‘‘मेरी मौसी की बेटी की 30 अप्रैल को शादी होने वाली थी. उसी में शामिल होने आया था. मेरी मां 26 अप्रैल को बीमार पड़ गई. उन्हें मैं सुमेरपुर लेकर भागा. वहां के दो निजी अस्पतालों में ले गया. एक ने उसका खून का नमूना लिया, दूसरे ने उनको देखने से भी इनकार कर दिया.’’
अगले दिन जब दीपक अपनी मां को उन्नाव जिला अस्पताल ले जा रहे थे तो उनकी मां ने रास्ते में ही दम तोड़ दिया. दीपक ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया, ‘‘मैं बक्सर के गंगा घाट पर उनका अंतिम संस्कार करना चाहता था, लेकिन मेरे पास पैसे नहीं थे. मैं मां को पैसे भेजता था. वही बचत करती थीं, लेकिन मैं उनकी मृत्यु प्रमाण पत्र बनने से पहले उन पैसे को नहीं ले सकता. पैसे नहीं होने की स्थिति में उनको अपने खेत में ही दफना दिया.’’
दीपक के पड़ोसी राम बहादुर जिन्होंने हाल ही में कोरोना से अपने छोटे भाई को खोया है. वे बताते हैं कि बक्सर घाट पर किसी शख्स के अंतिम संस्कार में करीब 15 हज़ार से 20 हज़ार रुपए तक लग जाते हैं.
इतने पैसे कहां खर्च होते हैं. इस सवाल के जवाब में बहादुर न्यूजलॉन्ड्री को बताते हैं, ‘‘आपको शव को जलाने के लिए लकड़ी लेना होगा, यहां से शव और जलाने वालों को घाट ले जाने के लिए गाड़ी करना होगा. वहां जाकर पंडित को पैसे देने होंगे. लौटते वक़्त जो लोग साथ गए थे, उन्हें खाना खिलाना पड़ता है. इस समय हर कोई इतने पैसे खर्च नहीं कर सकता है.’’
पैसे की कमी के कारण दीपक को अपनी मां को दफनाना पड़ा. वे कहते हैं, ‘‘मुझे आज भी तकलीफ है कि मैं उनका अंतिम संस्कार ठीक से नहीं कर पाया.’’
दीपक के गांव से थोड़ी दूरी पर बरगधा गांव है. यहां एक सप्ताह में सात लोगों की कोरोना से मौत हुई है. इसमें से एक 40 वर्षीय शिव प्रताप सिंह थे जिनकी मौत 25 अप्रैल को हुई. सिंह के बड़े भाई शिव भरण सिंह न्यूजलॉन्ड्री को बताते हैं, ‘‘हम तीन दिनों में तीन बार स्थानीय प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र गए. पहले तो उन्होंने बताया कि इसे कोरोना नहीं है. लेकिन उसे सांस लेने में दिक्क्त बढ़ती जा रही थी. हम फिर स्वास्थ्य केंद्र में वापस गए तो उन्होंने बताया कि इन्हें कोरोना है. यहां स्वास्थ्य व्यवस्था बेलगाम है.’’
सिंह कहते हैं, ‘‘मेरा भाई इलाज नहीं मिलने के कारण मर गया. अगर उसे इलाज मिल जाता तो शायद बच जाता. यहां तो ऑक्सीजन भी नहीं मिल पाता. एम्बुलेंस तक घर पर नहीं आयी. दूर गांव के किनारे खड़े होकर यहां आने से मना कर दिया. फिर हम अपनी गाड़ी से लेकर उन्हें गांव के किनारे तक गए.’’
अपने भाई के निधन के बाद शिव भरण और उनके भाई शव को लेकर बक्सर घाट ले गए. वे याद करते हुए कहते हैं, ‘‘चारों तरफ चिताएं जल रही थीं. कहीं जगह नहीं थी. वहां डर लग रहा था. चिता के आसपास खड़े होने में अधिक समय लगता है, ऐसे में हमने भाई को दफनाने का फैसला किया. यह हमारे लिए असहनीय था लेकिन मज़बूरी थी.’’