टीकाकरण की ढिलाई और बेहद लचर स्वास्थ्य ढांचे के बावजूद महामारी के खिलाफ विजयघोष किसी आपराधिक कृत्य से कम नहीं है.
साफ हवा की अनदेखी
यह तथ्य कई रिपोर्ट्स में सामने आया है कि दुनिया के सबसे अधिक प्रदूषित महानगर भारत में हैं. दिल्ली दुनिया की सबसे प्रदूषित राजधानी है और विश्व के 30 सबसे अधिक प्रदूषित शहरों में 22 भारत के हैं. यह भी स्पष्ट है कि प्रदूषित हवा लगातार फेफड़ों की क्षमता को कम कर रही है जो कि कोरोना संक्रमण के ख़तरे को बढ़ा रहा है. बीमारी से उबरने के बाद प्रदूषित हवा से क्षीण हो चुके फेफड़े कोविड के साइड इफेक्ट का शिकार हो रहे हैं जिसे लॉन्ग कोविड कहा जाता है.
वायु प्रदूषण विशेषज्ञ और सेंटर फॉर रिसर्च ऑन एनर्जी एंड क्लीन एयर में विश्लेषक सुनील दहिया कहते हैं, “अभी कोरोना वायरस की वजह से प्रदूषण चर्चा में है लेकिन हम ये कहते रहे हैं कि घातक प्रदूषण और उसका निरंतर एक्सपोज़र लोगों के फेफड़ों को लगातार कमज़ोर कर रहा है और अस्थमा के जानलेवा अटैक हर साल लोगों को होते हैं. कई रिसर्च यह बता चुकी हैं कि प्रदूषण का असर फेफड़ों की ताकत और उनके आकार पर पड़ता है.”
सांस के रोगों के जानकार चिकित्सक कहते हैं कि हर साल जाड़ों में प्रदूषण के स्तर बढ़ने के साथ आईसीयू में मरीज़ों की संख्या बढ़ने लगती है जिन्हें तुरंत ऑक्सीज़न चाहिये. अब इसे कोरोना से पैदा हालात से जोड़कर देखें तो स्पष्ट रूप से साफ हवा का महत्व समझ आता है. यह निराशाजनक है कि सरकार का क्लीन एयर प्रोग्राम न केवल कमज़ोर और ढीले-ढाले लक्ष्यों वाला है बल्कि उसमें दोषी अधिकारियों के लिये किसी तरह की सज़ा का प्रावधान भी नहीं है.
कोरोना के वक्त कचरा प्रबन्धन की चुनौती
ठोस कचरा प्रबंधन हमेशा से ही हमारे सफाई चक्र (सेनिटेशन) की कमज़ोर कड़ी रहा है. साल 2016 में सरकार ने ठोस कचरे से जुड़े नये नियमों का ऐलान तो किया लेकिन वह नियम कागज़ पर ही हैं. कोरोना महामारी ने इस संकट की भयावहता को उजागर किया है.
हरिद्वार में आयोजित कुम्भ में हर रोज़ 100 टन खतरनाक कचरा जमा हुआ जिसे शहर के आसपास सड़क किनारे या गांवों में बिखेर दिया गया. डाउन टु अर्थ मैग्ज़ीन की रिपोर्ट कहती है कि कुम्भ से पांच महीने पहले ही नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल के आदेश और नेशनल क्लीन गंगा मिशन के तहत इस कूड़े का निस्तारण कचरा प्रबंधन नियमों के तहत होना था लेकिन ऐसा हुआ नहीं और हरिद्वार के आसपास गांवों में लाखों लोगों के जीवन को ख़तरे में डाल दिया गया.
वैसे भी देश में साधारण कचरे, हानिकारक कचरे और बायो मेडिकल वेस्ट के बीच छंटनी करने की परंपरा गायब रही है और कोरोना के महामारी के वक्त तो पीपीई किट, दस्ताने, टोपियां और मास्क– जिनका प्रयोग ज़रूरी है, कचरे में बेरोकटोक जा रहे हैं. ठोस कचरा प्रबंधन के जानकार और पुस्तक वेस्टेड के लेखक अंकुर बिसेन कहते हैं कि मेडिकल वेस्ट का क्या किया जाये इस बारे में न तो जानकारी है और न ही ज़रिया है. इसीलिये यह हानिकारक कूड़ा सामान्य कचरे में मिल जाता है और लैंडफिल में पहुंच जाता है.
बिसेन के मुताबिक, “भारत में ज़्यादातर कचरा कूड़ा बीनने वालों और कबाड़ियों के साथ इस काम में लगे अकुशल लोगों द्वारा अनौपचारिक रूप से इकट्ठा किया जाता है. यह सच है कि सामान्य आर्थिक गतिविधियों से जो कचरा निकलता है वह यहां वहां पड़ा रहता है लेकिन बाकी कूड़ा और उसका निस्तारण ढुलमुल ही रहता है क्योंकि सप्लाई चेन काम नहीं कर रही होती.”
महत्वपूर्ण है कि वर्तमान हालात में यह एक बड़ी चुनौती है. डॉ चंद्रकांत लहारिया मेडिकल वेस्ट की लापरवाही पर कहते हैं कि इसे लेकर काम करने का तरीका काफी “एड-हॉक अप्रोच” वाला रहा है और किसी तरह का संगठित कार्यशैली वाला ढांचा खड़ा नहीं किया गया.
(साभार- कार्बन कॉपी)