'पक्ष'कारिता: आज मर रहे पत्रकारों को बचाइए, उम्‍मीद बची तो कल पत्रकारिता भी बच जाएगी

अकसर खबरें वे नहीं होतीं जो छप जाती हैं. जो रद्दी की टोकरी में फेंक दी जाती हैं, खबर उनमें होती है. कोरोना वायरस से उपजी महामारी में भाषायी पत्रकारिता की हकीकत ये है कि क्षेत्रीय और स्‍थानीय पत्रकारों की मौत को रद्दी की टोकरी में फेंक दिया गया है.

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300 मौतों के पार टूटती उम्‍मीद

अकसर खबरें वे नहीं होतीं जो छप जाती हैं. जो रद्दी की टोकरी में फेंक दी जाती हैं, खबर उनमें होती है. कोरोना वायरस से उपजी महामारी में भाषायी पत्रकारिता की हकीकत ये है कि क्षेत्रीय और स्‍थानीय पत्रकारों की मौत को रद्दी की टोकरी में फेंक दिया गया है. इसके साथ वे उम्‍मीदें भी फ़ना हो रही हैं जिनकी प्रेरणा से वे पत्रकारिता कर रहे थे. इस बात को दिल्‍ली में बैठे जो लोग समझते हैं, थोड़ी दिक्‍कत उनमें भी है. इस जमात को भी पहली बार रोहित सरदाना की मौत पर ही चीखते-चिल्‍लाते हुए देखा गया कि आजतक ने उसकी मौत की खबर क्‍यों नहीं चलायी. वही लोग बाद में चैनल पर रोहित को दी गयी एक व्‍यावसायिक श्रद्धांजलि की आलोचना करते पाए गए. किसी ने भी नहीं पूछा था उससे पहले कि 15 अप्रैल से 30 अप्रैल के बीच मात्र एक पखवाड़े में कोरोना का शिकार हो चुके 100 से ज्‍यादा पत्रकारों की खबर कहीं किसी ने क्‍यों नहीं चलायी. हां, उसके बाद से ऐसी खबरें दिखना शुरू हुई हैं लेकिन अब भी केवल रस्‍म अदायगी हो रही है, जब मौतों का आंकड़ा 300 को पार कर चुका है.

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पिछले साल पहली लहर में यह स्थिति नहीं थी. 4 मई, 2020 को जब बनारस की युवा पत्रकार रिज़वाना तबस्‍सुम की ख़बर आयी थी तो कई हफ्ते भर उस पर अलग-अलग वेबसाइटों पर चर्चा चलती रही थी. रिज़वाना की मौत कोविड से नहीं हुई थी, फिर भी यह बड़ी खबर बनी. पत्रकारों में कोविड से पहली मौत दैनिक जागरण, आगरा के पंकज कुलश्रेष्‍ठ की दर्ज की गयी थी जिसे यूपी से लेकर दिल्‍ली तक तकरीबन सभी अखबारों और वेबसाइटों ने छापा था. इस साल पहली बरसी पर इन दो मौतों को याद तक नहीं किया गया. इस एक साल में हम कहां आ गए हैं, इसका अंदाजा केवल इस तथ्‍य से लगाइए कि ‘आज’ अखबार के निदेशक शाश्‍वत विक्रम गुप्‍त और बरसों इस अखबार के राजनीतिक संपादक रहे सत्‍यप्रकाश असीम की मौत की खबर गुमनामी में रह गयी. खबर ही नहीं, पत्रकार चंदन प्रताप सिंह की लाश भी लखनऊ में घंटों गुमनामी में पड़ी रही और उसे कोई लेने नहीं आया.

सवाल हालांकि पत्रकारों की मौत को नोटिस किये जाने से कहीं ज्‍यादा बड़ा है. यह सवाल मौत से पहले अस्‍पताल में बिस्‍तर, ऑक्‍सीजन, वेंटिलेटर, प्‍लाज्‍़मा, दवा के लिए संघर्ष से शुरू होता है और मौत के बाद परिवार का खर्च चलाने तक जाता है. फिर जिंदगी के साथ ही खत्‍म होता है. लखनऊ के वरिष्‍ठ पत्रकार विनय श्रीवास्‍तव की मौत की दर्दनाक कहानी ऐसी ही है. उनकी कोविड रिपोर्ट तीन दिन बाद आनी थी लेकिन ऑक्‍सीजन 50 के स्‍तर पर पहुंच चुका था. अस्‍पताल कोविड रिपोर्ट के बगैर भर्ती करने को तैयार नहीं थे. उनका बेटा हर्षित सीएमओ का रेफरल लेने के लिए दफ्तर के बाहर डटा रहा और उनके ट्विटर अकाउंट से उनकी मौत के आखिरी पल तक ट्वीट कर के मदद मांगता रहा, लेकिन मदद नहीं आयी. दोपहर 3.30 बजे विनय श्रीवास्‍तव गुज़र गए. उन्‍हें देखने, सांत्‍वना देने, एक भी शख्‍स उनके घर नहीं पहुंचा.

बेबसी और मौत की यह कहानी अंग्रेज़ी की एक वेबसाइट से होते हुए विदेश तक गयी और मशहूर पत्रकार एनी गोवन ने इसे ट्वीट कर के अंग्रेज़ी में लिखा, ‘’श्‍मशानों को जाने वाले रास्‍तों पर जब लाशें बिखरी पड़ी थीं, एक पत्रकार अपनी मौत को लाइव ट्वीट कर रहा था.‘’ इस कहानी को दिल्‍ली में एकाध वेबसाइटों को छोड़ किसी ने नहीं उठाया.

नाउम्‍मीदी का सरकारी सामान

देर से ही सही, लेकिन उत्‍तर प्रदेश से लेकर दिल्‍ली और झारखंड तक पत्रकारों को टीका लगाने के लिए विशेष प्रबंध सरकारों और यूनियनों ने किए हैं. टीका तो भविष्‍य को सुरक्षित रखने के लिए है और जरूरी भी है, लेकिन संकट में फंसे वर्तमान के लिए किसी के पास कोई योजना नहीं है. प्रेस काउंसिल ने आज से दस दिन पहले ही केंद्र और राज्‍य सरकारों को अपनी सिफारिश याद दिलायी थी कि पत्रकारों का बीमा कराया जाए, उन्‍हें कोविड योद्धाओं की श्रेणी में डाला जाए और मौत होने पर वित्‍तीय मदद दी जाए. लगता है राज्‍य सरकारों ने अपने कान बंद कर रखे हैं.

केंद्र सरकार ने अप्रैल में कोविड का शिकार हुए पत्रकारों के लिए पांच लाख रुपये की मदद के प्रावधान की घोषणा पत्रकार कल्‍याण योजना में की थी. पिछले दो सप्‍ताह से इसकी अधिसूचना केवल व्हाट्सएप समूहों में घूम रही है लेकिन अब तक किसी को कोई मदद मिली हो ऐसी सूचना नहीं है. यही हाल पिछले साल उत्‍तर प्रदेश सरकार द्वारा घोषित पांच लाख के बीमा का है. इस बार यूपी सरकार ने टीकाकरण में पत्रकारों को प्राथमिकता देने का प्रावधान किया है लेकिन आर्थिक मदद के लिए केंद्र की योजना का ही हवाला दे दिया है.

इसके बरक्‍स ओडिशा सरकार ने अपने पत्रकारों को 15 लाख की आर्थिक मदद का प्रावधान किया है. तेलंगाना मीडिया अकादमी ने कोविड से प्रभावित पत्रकारों के लिए एक करोड़ की राशि अनुदान में दी है. इसके अलावा तेलंगाना सरकार ने मारे गए पत्रकारों के परिवार को 2 लाख रुपये की मदद की घोषणा की है. कमेटी टू प्रोटेक्‍ट जर्नलिस्‍ट्स (सीपीजे) ने एक अहम प्रावधान किया है कि वह उन संक्रमित पत्रकारों को वित्‍तीय मदद देगी जो आर्थिक रूप से कमजोर हैं. इसके अलावा कई और विदेशी संस्‍थान मदद के लिए आगे आए हैं. दिक्‍कत यह है कि इस बारे में सूचना के प्रसार का कोई औपचारिक तंत्र नहीं है.

दिल्‍ली और मुंबई के प्रेस क्‍लब अपेक्षया संसाधन-संपन्‍न हैं, तो वहां कुछ अग्रिम इंतज़ाम किए गए हैं ऑक्‍सीजन कंसन्‍ट्रेटर आदि के. प्रेस असोसिएशन, विमेन्‍स प्रेस कॉर्प्‍स भी अपने-अपने तरीके से सक्रिय हैं. इसके बावजूद वैश्विक आपदा के मौके पर भारत के पत्रकारों की जान को बचाने के लिए कोई व्‍यवस्थित तंत्र नहीं है. न संस्‍थान मदद करते हैं, न प्रशासन. निजी संपर्कों के माध्‍यम से किसी की मदद हो जाय यही बहुत है लेकिन जब तक मदद आती है तब तक जीने की गुंजाइश नहीं बचती. मेरठ के पत्रकार अरविंद शुक्‍ला सहित तमाम ऐसे केस हैं जहां मौत को समय रहते टाला जा सकता था.

इस अंधेरे वक्‍त में पत्रकारिता की लौ को भरसक जगाए रखने के लिए पत्रकार खुद मोम की तरह पिघल रहे हैं. किसी को किसी ने पत्रकारिता करने को नहीं कहा है. किसी ने इसका टेंडर नहीं भरा है. बस एक धुंधली सी उम्‍मीद है, एक प्रेरणा, जो अलग-अलग शक्‍ल में सबके पास अलग-अलग जगहों और विचारों से आती है. इसलिए हमें समझना होगा कि अखबार अकेले पूंजी, मशीन या मालिक से नहीं चल सकते. अखबार के मूल में उसका पत्रकार है. पत्रकार में उम्‍मीद बचेगी, तो ही पत्रकार बचेगा और अखबार भी बचेगा. अखबार बचा, तो ही वो पढ़ने वालों को उम्‍मीद बंधा पाएगा. अखबार बचा, तो सही वक्‍त आने पर उसके लिए तोप भी मुकाबिल होगी.

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