देश के विभिन्न हिस्सों में वैक्सीन की भारी किल्लत है, लेकिन ये बात जानकर आपको हैरानी होगी कि इस किल्लत से होने वाली तबाही की आशंका संसद की स्थायी समिति ने मार्च महीने में ही जाहिर कर दी थी.
वैक्सीन की कीमत को लेकर भी पूरी तरह से फर्जीवाड़े को बढ़ावा देने वाली नीति को तवज्जो दी. काबिलेगौर हो कि सरकारी मोलभाव के अनुसार केंद्र को 150, राज्यों को 400 और निजी अस्पतालों और कंपनियों को 1200 रुपए की दर से वैक्सीन के भाव तय किए जबकि वैक्सीन का दाम एक ही होना चाहिए था. तीन तरह के दाम तय करके वैक्सीन की कालाबाजारी को खुले रूप में छूट दे दी.
सच तो यह है कि केंद्र और राज्यों को समान दर 150 पर ही वैक्सीन मिलनी चाहिए थी और समस्त जनता व निजी अस्पतालों को 1200 की दर से केंद्र सरकार के माध्यम से सप्लाई होनी चाहिए थी ताकि वैक्सीन कंपनियों के अनुचित मुनाफे पर लगाम लगती साथ ही राज्यों का भी वित्तीय बोझ कम होता. वैक्सीन नीति पर मोदी निर्लज्जता का आलम यह है कि वैक्सीन को जीएसटी से भी छूट नहीं दी.
स्वास्थ्य की राष्ट्रीय आपदा में भी मुनाफाखोरी. इस सरकार में थोड़ी सी भी मानवता बची हो तो वैक्सीन को जीएसटी से अविलंब छूट देना चाहिए. हो सके तो टोकन यानी नाममात्र की जीएसटी लगाए जाने का प्रावधान होना चाहिए. गर ऐसा होता है तो इससे वैक्सीन की कीमतों में कमी होने के साथ ही उत्पादकों को इनपुट टैक्स क्रेडिट का लाभ भी मिल सकेगा.
सच तो यह है कि मोदी सरकार वैक्सीनेशन की चुनौतियां वक्त रहते पहचान कर टीके का खर्च राज्य सरकारों पर थोपने के फैसले पर फिर विचार करना चाहिए. अभी भी देश में वैक्सीन की सप्लाई मांग से बहुत बड़ी खाई है. सरकार द्वारा 18 से 44 साल के लोगों को वैक्सीन लगाने के फैसले के बाद लक्षित जनसंख्या तीन गुना (33 करोड़ से 94 करोड़) हो गई है, जबकि वैक्सीन की आपूर्ति लगभग वही है (सात से आठ करोड़ खुराक प्रतिमाह).
इसमें कोई दो राय नहीं है कि अभी इस महामारी से लड़ने में वैक्सीन एक अहम औजार है. लेकिन इसकी सफलता के लिए जरूरी है कि हर लक्षित व्यक्ति तक समय पर वैक्सीन पहुंचे. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के लिए इससे बढ़कर हास्यास्पद बात और क्या हो सकती है कि वे अभी तक वैक्सीन की कमी को तो खत्म नहीं कर पाए लेकिन इस मसले पर एक राय भी नहीं बनवा पाए हैं.
आज मोदी सरकार पूरी तरह से अपनी साख खो चुकी है. इस समय प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की किसी भी बात पर किसी भी राज्य के मुख्यमंत्री को विश्वास नहीं रहा है. इस स्थिति के लिए स्वंय मोदी जिम्मेदार हैं. देखते कैसे. कहना गलत नहीं होगा कि वे अपनी झूठी साख के निर्माण के लिए धरातल की दिक्कतों को नजरअंदाज करें हवाबाजी में फैसले लेते हैं.
बतौर उदाहरण समझे कि देश में टीका नहीं होने के बावजूद उन्होंने टीकोत्सव मना लिया. इसके साथ ही 45 साल से कम उम्र के लोगों के लिए टीकाकरण शुरू करके अफरा तफरी मचा दी. आज किसी को भी टीके की सहज उपलब्धता नहीं है. देश भर में टीके की आपूर्ति कम हो रही है. इससे राज्यों में प्रतिस्पर्धा बढ़ी और टीका कंपनियों की मनमर्जी को अवसर मिला. अब सभी के लिए टीकाकरण को लेकर राज्य उत्सुक नहीं दिखाई दे रहे हैं, क्योंकि रोजाना 30 लाख खुराक की आपूर्ति नहीं हो रही है. केंद्र उनकी मांग मानने को लेकर लापरवाह है और पिछली नीति को बदलकर एक नई 'उदारीकृत' योजना बनाने को लेकर संवेदनहीन.
सनद रहे कि किसी भी वैक्सीन-पॉलिसी में जल्द से जल्द और हर संभव आपूर्ति बढ़ाने की दरकार होती है. कम कीमत पर टीके की खरीदारी, मध्यम अवधि की योजना और प्रभावी ढंग से टीके का बंटवारा अभी व भविष्य में भी जीवन बचाने में सक्षम है. मगर मौजूदा नीति ऐसा करने में कारगर साबित नहीं है. हम टीके को उसी तरह से खरीद रहे हैं, जैसे महीने में राशन का सामान.
काबिलेगौर हो कि वित्त मंत्री ने कहा था कि सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया और भारत बायोटेक को क्रमश: 3,000 करोड़ और 1,567 करोड़ रुपये एडवांस दिए जाएंगे. लेकिन बजाय इसके उन्हें लगभग आधा ही भुगतान किया गया. इसके चलते 16 करोड़ खुराक की आपूर्ति 157 रुपये प्रति टीके की दर पर हुई. यदि लक्ष्य 50 लाख खुराक प्रतिदिन है, तो यह सिर्फ एक महीने की आपूर्ति है. इसका अर्थ है कि केंद्र सिर्फ 45 से अधिक उम्र की आबादी के टीकाकरण में मदद करेगा, बाकी की आपूर्ति संभवत: अन्य कंपनियों से पूरी की जाएगी और बाकी का टीकाकरण राज्यों का काम है.
ऐसे में, भविष्य की किसी उम्मीद के बिना टीका बनाने वाली कंपनियां क्या आपूर्ति बढ़ाने को लेकर निवेश करेंगी? फिलहाल, स्पूतनिक-वी को मंजूरी मिल गई है और उससे कुछ लाख खुराक का आयात किया जाएगा. कहा जा रहा है कि छह कंपनियां टीका देने को तैयार हैं, लेकिन अभी इस बाबत आदेश का इंतजार है. जॉनसन और नोवावैक्स को अभी तक मंजूरी नहीं मिली है. दोनों ने भारतीय साझीदार खोज लिए हैं और उम्मीद है कि वे मौजूदा जरूरत के मुताबिक केंद्र सरकार के बजाय सूबे की सरकारों से बातचीत करें.
चूंकि टीकाकरण में कई चुनौतियां आ रही हैं, समाधान परिप्रेक्ष्य से कुछ बातों पर गौर करना चाहिए. पहली, भारत सरकार को कोवीशील्ड के दो टीकों के बीच का अंतर 12 हफ्ते कर देना चाहिए. इसके पर्याप्त वैज्ञानिक साक्ष्य हैं कि कोवीशील्ड के दो टीकों में जितना अंतर होगा, वैक्सीन उतनी ही प्रभावी होगी. इसके अलावा, सभी आयुवर्ग के जिन लोगों को आरटी-पीसीआर जांच में कोविड पाया गया हो, वे टीकाकरण के लिए संक्रमण के बाद चार से छह महीने गुजरने का इंतजार कर सकते हैं. संक्रमण के बाद व्यक्ति में करीब छह महीने एंटीबॉडी रहती हैं. इससे कुछ करोड़ टीके उन लोगों को उपलब्ध हो जाएंगे, जिन्हें पहली खुराक का इंतजार है, साथ ही, वैक्सीन का उत्पादन व आपूर्ति बढ़ाने के लिए भी समय मिल जाएगा.
इससे टीकाकरण केंद्रों पर वैक्सीन की कमी से होने वाली अफरातफरी से भी बचा जा सकता है. सबसे पहले यह भी ध्यान दिया जाए कि विशेष कार्यान्वयन पहल से यह सुनिश्चित हो कि वैक्सीनेशन में समानता हो, जैसे झुग्गी झोपड़ी और प्रवासी मजदूरों के टीकाकरण के लिए मोबाइल वैन पर विचार किया जा सकता है. ऐसी ही पहल ग्रामीण, पर्वतीय और अन्य मुश्किल पहुंच वाले इलाकों के लिए होनी चाहिए. पोलियो उन्मूलन कार्यक्रम व नियमित टीकाकरण अभियान से मिले सबक का इस्तेमाल कोविड वैक्सीन को समय पर और समाज के आखिरी व्यक्ति तक पहुंचाने में किया जाना चाहिए.
यह जरूरी है कि टीकाकरण की नीति आसान बनाई जाए. उदाहरण के लिए राज्यों को वैक्सीन निर्माताओं से सौदेबाजी का अनुभव नहीं है और उन्होंने पिछले बजट में वैक्सीन के लिए प्रावधान भी नहीं किया है. भारत के चार दशक पुराने राष्ट्रीय टीकाकरण कार्यक्रम में सभी वैक्सीन की केंद्रीकृत खरीद होती रही हैं. अच्छा होगा, वैक्सीन केंद्र सरकार एक समान दर पर खरीदे और सभी को मुफ्त उपलब्ध कराए.
(लेखक सम-सामयिक मुद्दों पर कलम चलाते हैं और पत्रकारिता जगत से सरोकार रखने वाली पत्रिका मीडिया रिलेशन का संपादन करते हैं.)