एक सार्थक व पवित्र जीवन का मतलब ही यह होता है कि काल व वक्त की दूरी पार कर भी उसकी गूंज उठती रहती है. मौलाना वहिदुद्दीन खान वैसी ही गूंज बन कर हमारे बीच रहेंगे.
मौलाना फिर बड़े भरोसे से बोले, “आपको लगता है कि आपके वापस आने के बाद भी कुछ बोले नहीं होंगे? वे ऐसे इंसान नहीं हैं. उनके भीतर बात चलती रहती है." मैंने कुछ ऐसा कहा कि जिससे बात बनती न हो, वैसी बातों का चलना, न चलना सब बेमानी ही होता है, तो धीरे से जैसे मुझे आश्वस्त कर रहे हों. ऐसे बोले, “आप बहुत परेशान न हों. कुछ बातें वक्त भी तो बना देता है.” वहां से निकला तो मुझे भी कहीं आश्वस्ति मिली थी कि हम भले कुछ न कर पा रहे हों, वक्त जरूर कुछ करेगा. जब अपने हाथ में कुछ नहीं होता है तब उन जैसा कोई आदमी शुभ की कामना करता है तो वह कामना आपके भीतर भी भरोसा जगाती है.
वे इस्लाम के पंडित थे, भारतीय अध्यात्म उनकी अंतर्धारा थी. वे पहले मुसलमान थे और अंतत: भी मुसलमान थे लेकिन उसी दावे के साथ वे पहले भारतीय थे और अंतत: भी भारतीय थे. आसान नहीं होता है ऐसा संतुलन साधना लेकिन साधना सब कुछ आसान बना देती है. इसलिए जो सिर्फ मुसलमान थे उन्हें मौलाना बहिदुद्दीन पचते नहीं थे; जो सिर्फ हिंदू थे उनको भी मौलाना से ऐसी ही दिक्कत होती थी. बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद वे अपनी कोटि के संभवत: पहले मुसलमान थे जिसने सार्वजनिक रूप से कहा था कि मुसलमानों को अब बाबरी मस्जिद से अपना दावा वापस ले लेना चाहिए और उस तरफ से खामोशी अख्तियार कर लेनी चाहिए. मुझे यह तजवीब रुचि नहीं थी. मैंने पूछा, आप मुसलमानों को न्याय के हक में बोलने का अधिकार भी नहीं देंगे?
वे बगैर किसी प्रतिक्रिया के बोले, मैंने किसी से हक छोड़ने को नहीं कहा है. खामोश रहना भी बोलना ही है. मुसलमान पिछले दिनों में जो कुछ हुआ है उसका गम बता कर खामोशी अख्तियार कर लेंगे तो हिंदुओं के लिए लाजिमी हो जाएगा कि वे सच व न्याय की बात बोलें." उन्होंने यह भी कहा कि बाबरी के बाद किसी मस्जिद-मंदिर का सवाल नहीं उठाया जाएगा, ऐसा आश्वासन मिलना चाहिए. मैंने फिर टोका था. यह आश्वासन कौन देगा? ये तो वे लोग हैं जो सर्वोच्च न्यायालय को आश्वासन दे कर भी छल करने में हिचकते नहीं हैं. बगैर किसी रोष के वे बोले, "नहीं, यह आश्वासन भर नहीं, संवैधानिक वचन होना चाहिए. लिखित हो और न्यायपालिका की मध्यस्थता में हो. ऐसा कुछ होना नहीं था, हुआ भी नहीं लेकिन मौलाना अपनी बात कहते रहे. अपनी बात बेहिचक कहना और कहते रहना उनकी साधना थी."
ऐसा नहीं था कि वे कम बोलते थे लेकिन उनके अंदर कोई छलनी लगी थी जिससे छन कर सार भर ही बाहर आता था. उस ऊंचाई के लोग दूसरों को बहुत छोटा व तुच्छ मानते हैं लेकिन मौलाना उतने ऊंचे आसान से कभी बात नहीं करते थे. वे मनुष्य से छोटी भूमिका में मुझे कभी मिले ही नहीं. गांधीजी के सेवाग्राम आश्रम में शाम की प्रार्थना में वे हमारे साथ बैठे थे. सभी चाहते थे कि प्रार्थना के बाद वे कुछ कहें. ऐसा होना कोई अनहोनी नहीं थी. खास मेहमानों से प्रार्थना के बाद कुछ कहने की बात होती रहती थी. लेकिन मौलाना ने बात सुनते ही इंकार में सर हिलाया. एकदम इंकार! लेकिन बापू जिस पीपल के वृक्ष के नीचे बैठ कर प्रार्थना करते थे वहां देर तक बैठे रहे. पीपल जैसे लाखों पत्तियों वाला अपना हाथ ऊपर लहरा रहा था. धीरे से बोले यहां बोलना क्या, यहां तो ये सारे पत्ते भी प्रार्थना करते रहते हैं. इन्हें सुनें हम. दूसरे दिन बहुत इसरार के बाद, वे प्रार्थना के अंत में कुछ बोले भी लेकिन मुझे याद तो इतना ही रहा कि यहां पत्ते भी प्रार्थना करते हैं, इन्हें सुनें हम!
अब वह आवाज सुनाई नहीं देगी. मौत का मतलब ही उतनी दूर का सफर होता है जितनी दूर से आती आवाज न सुनाई देती है, न इंसान उतनी दूर से दिखाई देता है. लेकिन एक सार्थक व पवित्र जीवन का मतलब ही यह होता है कि काल व वक्त की दूरी पार कर भी उसकी गूंज उठती रहती है. मौलाना वहिदुद्दीन खान वैसी ही गूंज बन कर हमारे बीच रहेंगे.