मोदी अगर ऐसे ही अपने विशिष्टतावादी विचारों को लेकर आगे बढ़ते रहे जिसने सार्वजनिक स्वास्थ्य के मामले में यह विनाशक तबाही मचायी है, तो भविष्य में इतिहासकार उनका आकलन बहुत सख्ती से करेंगे.
भारत के प्रधानमंत्री अपनी फितरत में ऐसे अति-आत्मविश्वासी हैं कि विशेषज्ञ सलाह को हवा में उड़ा देते हैं. इसी हफ्ते कोविड से ग्रस्त पाए जाने पर अस्पताल में भर्ती हुए कांग्रेस पार्टी के एक पूर्व प्रधानमंत्री द्वारा इससे ठीक पहले दी गयी एक सलाह पर मोदी के मंत्री उन पर चढ़ बैठे. पिछले साल मोदी ने भारत की एक अरब आबादी पर अचानक एक विनाशकारी लॉकडाउन थोप दिया था. देश के शीर्ष महामारी विशेषज्ञों की राय के उलट जाकर बिना किसी चेतावनी के लगाया गया यह लॉकडाउन मोदी की नाटकीय भंगिमाओं के सर्वथा अनुकूल था. युवाओं की आबादी ज्यादा होने के चलते कोविड-19 के कारण मरने वाले भारतीयों की संख्या दूसरे देशों के मुकाबले कम ही रहनी थी. मृतकों की संख्या की कम गणना को लेकर आशंकाएं अब भी कायम हैं, लेकिन एक बेबुनियाद धारणा जो फैली कि भारतीय वायरस के प्रति ज्यादा इम्यून हैं, उसे मिस्टर मोदी ने फैलने दिया, कभी सवाल नहीं किया.
पहली लहर में कोविड ने भारतीय शहरों पर हमला किया था, लेकिन इस बार वह ग्रामीण इलाकों में जा रहा है जहां देश की अधिसंख्य आबादी रहती है. कोविड का तगड़ा शिकार बने ज्यादातर देशों की तरह भारत में भी मौतों के सिलसिले के लिए जिम्मेदार एक नाकारा और अहंकारी सरकार रही, और इसे चाहकर टाला जा सकता था. भारत एक ऐसा विशाल, जटिल और विविध देश है जिसे सबसे शांत दौर में भी चला पाना मुश्किल होता है, फिर राष्ट्रीय आपदा की तो क्या ही बात हो. आज यह देश कोरोना वायरस और भय की दोहरी महामारी से जूझ रहा है. जैविक और सामाजिक संक्रमण को थामने, अफरा-तफरी को दूर करने और लोगों से मास्क पहनने तथा शारीरिक दूरी के नियमों का पालन करवाने के लिए एक विश्वसनीय आश्वस्ति की दरकार होती है.
मिस्टर मोदी ने अपने फैलाए झंझटों से निपटने का ठीकरा राज्य सरकारों के सिर फोड़ दिया है क्योंकि वे मानते हैं कि किसी चीज़ की जवाबदेही उन पर नहीं है. उन्हें कायदे से अपनी उन गलतियों को स्वीकार करना चाहिए और दुरुस्त करना चाहिए जिससे चौतरफा क्लेश फैला है. उन्हें विशेषज्ञों के साथ इस पर परामर्श करने की ज़रूरत है कि बंदिशों को कैसे लागू करें; उन्हें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि सरकारी वादे पूरे हों; और अपनी साम्प्रदायिक सोच को त्याग देना चाहिए जो एक ऐसे वक्त में बांटने का काम करती है जब एकता की सबसे ज्यादा ज़रूरत है. मोदी अगर ऐसे ही अपने विशिष्टतावादी विचारों को लेकर आगे बढ़ते रहे जिसने सार्वजनिक स्वास्थ्य के मामले में यह विनाशक तबाही मचायी है, तो भविष्य में इतिहासकार उनका आकलन बहुत सख्ती से करेंगे.
अनुवाद: अभिषेक श्रीवास्तव
(साभार- जनपथ)