प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि तब लॉकडाउन इसलिए लगाया था क्योंकि हमारी तैयारी नहीं थी, संसाधन नहीं थे, इस बीमारी का कोई इलाज पता नहीं था. लेकिन आज हम सारे संसाधनों के साथ तैयार भी हैं और हमें इस कोविड का इलाज भी पता है.
शायर गा रहा है- झूठ की कोई इंतहा ही नहीं!
विश्व स्वास्थ्य संगठन कह रहा है- हमने फरवरी में ही भारत सरकार को आगाह किया था कि यूरोप आदि में जैसा दिखाई दे रहा है, कोविड का वैसा ही विकराल स्वरूप आपके यहां भी लौटेगा. इसलिए अपने ऑक्सीजन का उत्पादन जितना बढ़ा सकें, बढ़ाइए. किसी के कान पर तब जूं क्यों नहीं रेंगी? अखबारों में यह खबर सुर्खी क्यों नहीं बनी?
पहले लॉकडाउन से इस लॉकडाउन के बीच (आपको अंदाजा न हो शायद कि कोई 15 राज्यों में लॉकडाउन लगाया जा चुका है- हां, उसका नाम बदल दिया गया है!) स्वास्थ्य सेवा में क्या-क्या सुधार किया गया है, किस क्षेत्र में क्या-क्या क्षमता बढ़ाई गई है, कोई तो बताए! अस्पताल में जब भी एक मरीज दाखिल होता है तो वह अपने साथ एक डॉक्टर, एक नर्स, एक निपुण जांचकर्ता, ऑक्सीजन, वेंटिलेटर विशेषज्ञ से ले कर कितने ही स्वास्थ्यकर्मी की मांग करता हुआ दाखिल होता है. कोई तो बताए कि उस लॉकडाउन से इस लॉकडाउन के बीच इनकी संख्या में कितनी वृद्धि हुई?
कोई हमें यह न बताए कि डॉक्टर, नर्स, विशेषज्ञ आदि एक-दो-दस दिन में तैयार नहीं किए जा सकते. जब आपातकाल सामने होता है तब तर्क से अधिक संकल्प व ईमानदारी की या ईमानदार संकल्प की जरूरत होती है, जुमलेबाजी की नहीं. किया यह जा सकता था कि कैसे उन सब डॉक्टरों को, जो समर्थ हैं लेकिन कानूनन रिटायर हो गए हैं, वे जो नौकरी के अभाव में आजीविका के लिए प्राइवेट प्रैक्टिस कर रहे हैं, वे जो फौजी स्वास्थ्य सेवाओं से निकले हैं, वे जो डॉक्टरी के अंतिम वर्षों में पहुंचे हैं, वे जो अलग-अलग पैथियों में इलाज करते हैं उन सबको कोविड के खिलाफ सिपाही बना कर उतारने के लिए आवश्यक प्रशिक्षण दिया जाता. उनकी आर्थिक व्यवस्था की जाती और उन्हें चरमराते अस्पतालों में, समझ से कोरे घरों में फैला दिया जाता कि वे लड़ाई में देश की मदद करें. संक्रमण को परास्त करने का युद्ध तो छेड़ा जाता! लेकिन माहौल तो एक ही बनाया गया कि कहां चुनाव जीतना है, कहां कैसी संकीर्णता फैलानी है, कहां कौन-सा यज्ञ-अनुष्ठान आयोजित करवाना है. सत्ता जब ऐसा माहौल बनाती है, तब सारे सत्ताकांक्षी उसके पीछे-पीछे दौड़ते हैं. इसलिए नेताओं में कोई फर्क बचा है कहीं?
हमें अपनी अदालतों से पूछना चाहिए कि आपने अपनी तरफ से संज्ञान लेकर कभी वह सब क्यों नहीं कहा जो अब कह रहे हैं? आपने तो अदालतों को ही लॉकडाउन में रख दिया! संविधान में लिखा है कहीं कि न्यायालय अपनी संवैधानिक दायित्वों से भी मुंह मोड़ सकते हैं? आपातकाल में न्यायपालिका पर यही दाग तो लगा था जो आज भी दहकता है! और चुनाव आयोग से क्यों नहीं पूछा जाना चाहिए कि क्या उसे कोविड का घनेरा दिखाई ही नहीं दे रहा था कि उसने चुनावों का ऐसा भारी-भरकम, लंबा आयोजन किया? सत्ता की बेलगाम भूख को नियंत्रित करने के लिए ही तो हमने चुनाव आयोग का सफेद हाथी पाला है. किसी गृहमंत्री ने ऐसी लंगड़ी दलील दी कि संविधान में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है कि चुनाव से बचा जा सके. कितना बड़ा पाखंड है यह. चुनाव से बचने की अलोकतांत्रिक भ्रष्ट मानसिकता और अभूतपूर्व महामारी से देश को बचाने की संवैधानिक व्यवस्था में फर्क करने की तमीज नहीं है हमें? हमारी न्यायपालिका और चुनाव आयोग बताए कि क्या हमारा संविधान इतना बांझ है कि वह आपातकाल में रास्ते नहीं बताता है? चुनाव आयोग कभी देश से यह कहने एक बार भी सामने आया कि कोविड का यह अंधेरा चुनाव के उपयुक्त नहीं है? सब दूर से आती किसी धुन पर नाच रहे हैं. सामान्य समझ व संवेदना का ऐसा असामान्य लॉकडाउन देश कैसे झेलेगा? मर कर ही न! वही वह कर रहा है.
काबे किस मुंह से जाओगे गालिब/ शर्म तुमको मगर नहीं आती!