रोजी बनाम जिंदगी की लड़ाई जैसे कुएं और खाई के बीच किसी एक को चुनना

चारों ओर डर व्याप्त है कि जो कर्णधार सिर्फ़ बंगाल की हुकूमत पर क़ब्ज़ा करने के लिए तीन साल से ज़बरदस्त तैयारियों में जुटे थे उन्हें भनक तक नहीं लग पायी कि इधर समूचा देश केवल एक साल के भीतर ही हारने लगेगा और वे मरने वालों की गिनती करते रह जाएंगे.

WrittenBy:श्रवण गर्ग
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अपने किसी पुराने आलेख में मैंने भारतीय रिज़र्व बैंक के पूर्व गवर्नर डी सुब्बाराव के एक लेख का किसी और संदर्भ में ज़िक्र किया था. सुब्बाराव के लेख में प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान यहूदियों पर हुए नाज़ी अत्याचारों को लेकर 1982 में बनी एक बहुचर्चित फ़िल्म ‘Sophie’s Choice ’ का उल्लेख था. फ़िल्म में पोलैंड की एक यहूदी मां के हृदय में मातृत्व को लेकर चलने वाले इस द्वंद्व का वर्णन है कि वह अपने दो बच्चों में से किसे तो तुरंत मौत के ‘गैस चेम्बर‘ में भेजने की अनुमति दे और किसे नाज़ियों के ‘यातना शिविर’ (Labour camp) में ले जाए जाने की. सुब्बाराव ने फ़िल्म के कथानक का उल्लेख इस संदर्भ में किया था कि सरकार के सामने भी यहूदी मां की तरह ही संकट यह है कि वह उपलब्ध दो में से पहले किस विकल्प को चुने— लोगों की रोज़ी-रोटी बचाने का या उनकी ज़िंदगियां बचाने का. दुर्भाग्यपूर्ण यह रहा कि सरकार एक भी विकल्प पर ईमानदारी नहीं बरत सकी.

ऑक्सीजन और अन्य जीवन-रक्षक चिकित्सकीय संसाधनों की उपलब्धता और उनके न्यायपूर्ण उपयोग को लेकर राष्ट्रीय नेतृत्व के द्वारा जिस तरह से चेताया जा रहा है उससे तो यही लगता है कि हालात ऐसे ही अनियंत्रित होकर ख़राब होते रहे तो नागरिक एक ऐसी स्थिति में पहुंच सकते हैं जब उनसे पूछा जाने लगे कि वे ही तय करें कि परिवार में पहले किसे बचाए जाने की ज़्यादा ज़रूरत है. विकल्प जब सीमित होते जाते हैं तब स्थितियां भी वैसी ही बनती जाती हैं. टीकों की सीमित उपलब्धता को लेकर भी ऐसा ही हुआ था कि अभियान ‘पहले किसे लगाया जाए’ से प्रारम्भ किया गया. शुरुआत अग्रिम पंक्ति के स्वास्थ्यकर्मियों से हुई थी. 135 करोड़ की आबादी वाले देश में अब तक सिर्फ़ 10-11 करोड़ को ही टीके लग पाए हैं.

पिछले वर्ष इन्हीं दिनों जब यूरोप के देशों में कोरोना की महामारी ज़ोरों पर थी और हम अपनी ‘इम्यूनिटी’ पर गर्व कर रहे थे, तब सोशल मीडिया प्लेटफ़ार्म ‘ट्वि‍टर’ पर बेल्जियम की एक 90 वर्षीय महिला का किसी अस्पताल के कमरे के साथ चित्र जारी हुआ था. महिला सूज़ेन ने निधन से पहले अपने इलाज के लिए वेंटिलेटर का उपयोग करने से इसलिए इनकार कर दिया था कि मरीज़ों की संख्या के मुक़ाबले वे काफ़ी कम उपलब्ध थे. सूज़ेन ने डॉक्टरों से कहा था, ‘’मैंने अपना जीवन जी लिया है, इसे (वेंटिलेटर को) जवान मरीज़ों के लिए सुरक्षित रख लिया जाए.‘’

प्रसिद्ध अंतर्राष्ट्रीय पत्रिका ‘द इकॉनामिस्ट’ द्वारा रूस के संदर्भ में लिखे गए एक सम्पादकीय का मैंने एक बार ज़िक्र किया था कि लोगों का पेट जैसे-जैसे तंग होने लगता है, सरकारों के पास उन्हें देने के लिए ‘राष्ट्रवाद’ और ‘विषाद’ के अलावा और कुछ नहीं बचता. जो सरकारें अपनी जनता के ख़िलाफ़ भय का इस्तेमाल करती हैं, वे अंततः खुद भी भय में ही रहने लगती हैं. ऐसा दिख भी रहा है. पहली बार नज़र आ रहा है कि हुकूमत हक़ीक़त में भी डरी हुई है, डरे होने का अभिनय नहीं कर रही हैं. कहा नहीं जा सकता है कि यह डर जनता के स्वास्थ्य की चिंता को लेकर है या अपनी सत्ता के स्वास्थ्य को लेकर.

ऑक्सीजन और रेमडेसिविर इंजेक्शनों की मांग का सम्बन्ध इस बात से भी है कि व्यवस्था के प्रति लोगों का यकीन समाप्त होकर मौत के भय में बदलता जा रहा है. सबसे ज़्यादा दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति तो तब होगी जब ज़िम्मेदार पदों पर बैठे हुए लोग सांत्वना के दो शब्द कहने के बजाय जनता में व्याप्त मौजूदा भय को व्यवस्था के प्रति कोई सुनियोजित षड्यंत्र बताने लगेंगे. कोरोना की लड़ाई को महाभारत जैसा युद्ध बताया गया था. मौतें भी कुरुक्षेत्र के मैदान जैसी ही हो रही हैं.

(साभार- जनपथ)

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