लेखक ने पुस्तक में नेतृत्व, संगठन, जन हिस्सेदारी तथा नेता-कार्यकर्ताओं के बहाने चिपको आंदोलन की गहन पड़ताल की है. साथ ही आंदोलन में महिलाओं और युवाओं के योगदान पर भी विस्तार से चर्चा की है.
शेखर पाठक लिखते हैं कि पिछले 200 साल की जंगलात व्यवस्था और आंदोलनों का इतिहास बताता है कि, जंगलों की केन्द्रीयता हमारे जीवन में बनी रहेगी. ऊर्जा के वैकल्पिक साधनों के विकसित हो जाने पर भी जंगलों की व्यापक पारिस्थितिक भूमिका रहेगी. इस पहाड़ी जन-जीवन और वहां के जंगलों और संस्कृति के अस्तित्व की लड़ाई में जन्में अनेक आन्दोलनों और वन्य पेड़-पौधों, जीव-जंतुओं की सुरक्षा को समर्पित "हरी भरी उम्मीद" पहाड़ बचाओ संघर्षों का सम्पूर्ण इतिहास है. आप इस कृति को पढ़ते हुए विचारों के समन्दर में डूबते हैं और आप पढ़ते हुए बार-बार भावनात्मक होते हैं.
इस पुस्तक में एक बहुत ही महत्वपूर्ण विवरण "रैणी" पर है, जो ऊपरी अलकनंदा घाटी में एक भोटिया जनजातिओं का गांव है. यह वही जगह है, जहां महिलाओं, और अन्य ग्रामीणों ने गौरा देवी के नेतृत्व में पहली बार चिपको आंदोलन में भाग लिया था, जब उन्होंने मार्च 1974 के अंतिम सप्ताह में लकड़हाराओं द्वारा जंगल की कटाई को सफलतापूर्वक रोक दिया था. 1972 में गौरा देवी महिला मंगल दल की अध्यक्षा बनी. नवम्बर 1973 और उसके बाद गोबिन्द सिंह रावत, चण्डी प्रसाद भट्ट, वासवानंद नौटियाल, हयात सिंह तथा कई छात्र उस क्षेत्र में आए. आस पास के गांवो तथा "रैणी" में सभाएं हुईं. जनवरी 1974 में "रैणी" के जंगल के पेड़ों की बोली लगने वाली थी. नीलामी देहरादून में थी. वहां चण्डी प्रसाद भट्ट ठेकेदार को अपनी बात कह कर आए कि उसे आंदोलन का सामना करना पड़ेगा. इसके बाद 26 मार्च को उन्होंने महिलाओं को लेकर चिपको आंदोलन की शरुआत की. शेखर पाठक ने इस गांव की अपनी अनगिनत यात्राओं के आधार पर इसके बारे में विस्तार से लिखा है.
शेखर पाठक तीन दशकों तक कुमाऊं विश्वविद्यालय में शिक्षण; भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान शिमला तथा नेहरू स्मारक संग्रहालय तथा पुस्तकालय में फ़ेलो रहे प्रो. शेखर पाठक हिमालयी इतिहास, संस्कृति, सामाजिक आन्दोलनों, स्वतन्त्रता संग्राम तथा अन्वेषण के इतिहास पर यादगार अध्ययनों और योगदान के लिए जाने जाते हैं. "कुली बेगार" प्रथा, पण्डित नैनसिंह रावत, जंगलात के आन्दोलनों आदि पर इनकी किताबें विशेष चर्चित रही हैं. शेखर पाठक उन बहुत कम लोगों में से हैं जिन्होंने पांच अस्कोट आराकोट अभियानों सहित भारतीय हिमालय के सभी प्रान्तों, नेपाल, भूटान तथा तिब्बत के अन्तर्वर्ती क्षेत्रों की दर्जनों अध्ययन यात्राएं की हैं. हर दशक में एक बार, 1974, 1984, 1994 और 2004 में, उन्होंने, असकोट-आराकोट से एक पदयात्रा की.
प्रगति की दौड़ में आज का मानव इतना मतलबी हो गया है कि, वह अपनी सुख सुविधाओं के लिए कुछ भी करने को तैयार है. विज्ञान के क्षेत्र में असीमित प्रगति तथा नये आविष्कारों की स्पर्धा के कारण आज का मानव प्रकृति पर पूर्णतया विजय प्राप्त करना चाहता है. वैज्ञानिक उपलब्धियों के कारण मानव पर्यावरण से संबंधित विमर्श को उपेक्षा की दृष्टि से देख रहा है. धरती पर जनसंख्या की निरंतर वृद्धि, औद्योगीकरण एवं शहरीकरण की तीव्र गति प्रकृति के हरे भरे क्षेत्रों को समाप्त करता जा रहा है. परिणामस्वरूप पर्यावरण का संतुलन तेजी से बिगड़ता जा रहा है.
पर्यावरणविद शेखर पाठक का कहना है कि जल, जंगल, जमीन जैसे आधार संसाधन ही हिमालयी राज्यों का उद्धार व हिफाजत कर सकते हैं. वह लिखते हैं कि प्राकृतिक सौंदर्य, शिखर, झरने, वनस्पति, नदी, ग्लेशियर, जंगल, जीव-जंतु आदि प्राकृतिक घटक हिमालयी राज्यों की मुख्य परिसंपत्तियां है. वन व सांस्कृतिक विविधता हिमालय का मुख्य आधार है.
‘हरी भरी उम्मीद’ 20वीं सदी के विविध जंगलात आन्दोलनों के साथ चिपको आन्दोलन का पहला गहरा और विस्तृत अध्ययन-विश्लेषण प्रस्तुत करती है. यह अध्ययन समाज विज्ञान और इतिहास अध्ययन की सर्वथा नयी पद्धति का आविष्कार भी है. 14 अध्यायों और 600 पृष्ठों की यह पुस्तक वन्य प्रेमियों तथा पर्यावरण के प्रति जागरुकता का विशाल तथा महत्वपूर्ण साधन है. इसे पढ़ने से छोटे-बड़े तमाम ऐसे आंदोलनों का पता चलता है जिन्होंने पहाड़ और वन सुरक्षा में अहम योगदान दिया.
पुस्तक समीक्षा: हरी भरी उम्मीद: पहाड़ी जंगलों से जुड़े आंदोलनों का इतिहास
लेखक: शेखर पाठक
प्रकाशक: वाणी प्रकाशन
भाषा: हिंदी
मूल्य: 995 रुपए
(समीक्षक, आशुतोष कुमार ठाकुर पेशे से मैनेजमेंट कंसलटेंट हैं और कलिंगा लिटरेरी फेस्टिवल के सलाहकार हैं.)